चौथा स्तम्भ नहीं, 'सत्ता की बैसाखी': भारतीय मीडिया का नैतिक पतन और राष्ट्रद्रोह!

 

चौथा स्तम्भ नहीं, 'सत्ता की बैसाखी': भारतीय मीडिया का नैतिक पतन और राष्ट्रद्रोह!

दिल्ली में हुए आतंकी विस्फोट के बाद, जब देश सुरक्षा और जवाबदेही पर जवाब मांग रहा था, तब भारतीय मीडिया के एक बड़े वर्ग ने वह किया जो आज उसकी पहचान बन चुका है: सत्य को दफ़न करना और सत्ता के प्रोपेगेंडा की सेवा करना। धर्मेंद्र जी को ज़िंदा मार देने की झूठी ब्रेकिंग न्यूज़ से लेकर, पटना के सीसीटीवी फुटेज पर कागज़ चिपकाने की 'गोपनीयता' को सही ठहराने तक, यह मीडिया अब चौथा स्तम्भ नहीं, बल्कि सत्ता की बैसाखी बन चुका है। इसका पतन अब केवल नैतिक नहीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा और लोकतंत्र की विश्वसनीयता के लिए सीधा खतरा है।

 पत्रकारिता की मौत: स्टूडियो का अंधा धंधा

आज की पत्रकारिता टीआरपी और मुनाफे की वह अंधी दौड़ है, जहाँ मानवीय संवेदना और तथ्यात्मक सत्यापन (Fact-Checking) की कोई जगह नहीं बची है:

1. 'ANI-स्टूडियो' कल्चर का अभिशाप: ज़मीनी रिपोर्टरों को निकाल कर, लागत कम करके, सारे चैनल ANI जैसी एजेंसियों की फ़ीड पर निर्भर हो गए हैं। यह फ़्रीलांसिंग की भी मौत है। नतीजा? जब ब्रीच कैंडी जैसे प्रतिष्ठित अस्पताल से अपुष्ट खबर आती है, तो बिना दूसरा कॉल किए, बिना दूसरा सूत्र सत्यापित किए, देश के सबसे बड़े चैनल एक महान कलाकार को मार डालते हैं। यह पत्रकारिता नहीं, यह लापरवाही से किया गया राष्ट्रद्रोह है, जहाँ सनसनी के लिए किसी के भी जीवन को दांव पर लगाया जा सकता है।

2. सत्य की हत्या पर 'लीगल रिश्वत': पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सत्ता से सवाल पूछना था। आज, स्टूडियो में बैठे एंकर और संपादक सवाल पूछने का चलन ख़त्म कर चुके हैं। क्यों? क्योंकि सरकारें विज्ञापन रूपी 'लीगल रिश्वत' देती हैं। मीडिया को पता है, जितना कम ज़मीनी हकीकत दिखाओगे, उतना ही ज़्यादा मुनाफ़ा बढ़ेगा। इसलिए वे RDX की बरामदगी पर हरियाणा सरकार से सवाल नहीं पूछते, बल्कि धर्म-विशेष को बदनाम करने वाला नैरेटिव सेट करते हैं।

3. दोहरा मापदंड और दोगलापन: निजी बंदरगाह पर टन नशा बरामद होने पर 'चिंता' नहीं होती, लेकिन कुछ ग्राम के लिए महीनों तक टीआरपी का ड्रामा चलता है। PIB फैक्ट चेक सरकारी खर्चे पर विपक्ष के AI वीडियो पर लोगों को 'सतर्क' करता है, जबकि सत्ताधारी पार्टी खुद AI जेनरेटेड फेक वीडियो से चुनाव को प्रभावित कर रही है। यह दिखाता है कि मीडिया अब निष्पक्ष प्रहरी नहीं, बल्कि सत्ता का पीआर विंग बन चुका है।

 आतंकवाद के समय में 'नेरेटिव' बेचना

दिल्ली विस्फोट के बाद मीडिया का आचरण शर्मनाक रहा है।

 मुद्दों से ध्यान भटकाना: जब गृहमंत्री को दिल्ली में सुरक्षा चूक और खुफिया विफलता पर जवाब देना चाहिए था, तो मीडिया उन्हें 'अस्पताल जाकर घायलों का उपचार सुनिश्चित करते' हुए दिखाती है। यह गृहमंत्री के पद का दुरुपयोग है, और मीडिया का काम उस दुरुपयोग को उजागर करना था, न कि उसे वीरगाथा बनाकर बेचना।

 भटकता विमर्श: मुद्दा RDX या प्रियंका गांधी की विदेश यात्रा नहीं है। असली मुद्दा यह है कि आतंकवाद खत्म करने के दावों के बावजूद दिल्ली में विस्फोट क्यों हुआ, और मतदान के दिन ही क्यों हुआ? मीडिया की चुप्पी, और ज़िम्मेदारी को प्रचार में बदलना, लोकतंत्र को कमज़ोर कर रहा है।

भारतीय मीडिया को यह समझना होगा कि नैतिकता का पतन अब केवल उनके संस्थान का नहीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा का पतन है। जो मीडिया ज़िंदा को मारता है और अपराधी को बचाता है, उसे खुद को चौथा स्तम्भ कहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।