टेट्रा पैक में शराब: सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी और भारत की नशीली अर्थव्यवस्था का मौन संकट

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


टेट्रा पैक में शराब: सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी और भारत की नशीली अर्थव्यवस्था का मौन संकट

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को एक ऐसी चिंता उठाई है जो केवल कानूनी विवाद का विषय नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य, नियामक नैतिकता और बाल-सुरक्षा से जुड़ा हुआ गहरा सवाल है। अदालत ने ध्यान दिलाया कि कई राज्य सरकारें अब शराब को जूस जैसे दिखने वाले टेट्रा पैक में बेचने की अनुमति दे रही हैं—ऐसा पैकेजिंग प्रारूप जो देखने में इतना भ्रामक है कि विद्यालय-going बच्चों तक आसानी से पहुँच सकता है, और माता-पिता तक को संदेह न हो कि बच्चा क्या लेकर घूम रहा है।

जस्टिस सूर्यकांत की टिप्पणी सीधे-सीधे भारत की ‘राजस्व-प्रधान’ नीतियों पर चोट है: “सभी सरकारें केवल पैसा कमाने के लिए ऐसे पैक की अनुमति दे रही हैं।”

यह टिप्पणी किसी औपचारिक आदेश के रूप में नहीं आई, किंतु इसका नैतिक व सामाजिक वजन ऐसा है कि यह भारत की शराब नियंत्रण नीतियों पर दूरगामी बहस छेड़ सकती है।

## बच्चों की सुरक्षा पर न्यायालय का प्रश्न: क्या राज्य ने शराब को ‘जूस’ बना दिया है?

टेट्रा पैक में शराब, देखने में आम जूस की तरह—

 रंगीन प्रिंट

 आकर्षक ग्राफिक्स

 हाथ में आराम से आने वाला आकार

 और बिना किसी स्पष्ट Health Warning

यह एक ऐसा संयोजन है जो अनजाने में नहीं, बल्कि डिज़ाइन के स्तर पर जोखिम बढ़ाता है। अदालत ने स्पष्ट कहा: “हमने पहली बार ऐसा देखा है। क्या यह जूस है? माता-पिता की नजरें भी इसे पहचान नहीं पाएंगी।”

यह प्रश्न केवल भारत की ओर इशारा नहीं करता—दुनिया भर में पैकेज्ड शराब के नियमन का इतिहास बताता है कि यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर जैसे देशों में लुक-अलाइक पैकेजिंग (Look-alike Packaging) को सख्ती से नियंत्रित किया जाता है। भारत में यह नियंत्रण लगभग अनुपस्थित है।

## मूल मामला: ट्रेडमार्क विवाद से उठा एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रश्न

दिलचस्प यह है कि यह मुद्दा स्वयं किसी सामाजिक-जनहित याचिका से अदालत तक नहीं पहुँचा। दरअसल, सुनवाई का मूल विषय दो शराब कंपनियों—

 John Distilleries (Original Choice)

&

 Allied Blenders & Distillers (Officer’s Choice)

के बीच 20 वर्ष से अधिक समय से चल रहा ट्रेडमार्क विवाद था।

मद्रास हाईकोर्ट ने Allied Blenders के पक्ष में फैसला दिया था, जिसे John Distilleries ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।

अदालत ने इस विवाद को सहमति से मध्यस्थता में भेज दिया और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस एल. नागेश्वर राव को इसका मध्यस्थ नियुक्त किया। लेकिन इसी दौरान अदालत की नज़र टेट्रा पैक शराब पर पड़ी—और वहीं से यह बड़ा प्रश्न उठा: "क्या भारत सरकारें नशीली वस्तुओं को बच्चों के लिए आसान बना रही हैं?"

## राजस्व बनाम सार्वजनिक स्वास्थ्य — भारत की नीति की पुरानी दुविधा

भारत में शराब राज्य सरकारों के लिए एक प्रमुख राजस्व स्रोत है। कई राज्यों में कुल GST के बाहर यह सबसे बड़ा आय-स्त्रोत बन चुका है। इसी राजस्व निर्भरता ने नियमन को लगभग उपेक्षित कर दिया है—

 पैकिंग पर सख्त नियम नहीं

स्वास्थ्य चेतावनियाँ न्यूनतम

लुक-अलाइक पैकेजिंग पर कोई रोक नहीं

 विज्ञापन प्रतिबंधों को दरकिनार करने वाला surrogate branding तेज़ी से बढ़ता

जब राजस्वपालिका और जनस्वास्थ्य आमने-सामने खड़े हों, न्यायपालिका ही वह तीसरा स्तंभ है जो संतुलन बनाने की कोशिश कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी इसी “नैतिक संतुलन” का आह्वान है।

## बच्चों की पहुँच और भविष्य की चुनौती

सुप्रीम कोर्ट की चिंता केवल सैद्धांतिक नहीं है— UNICEF, WHO और UNESCO के डेटा बताते हैं कि भारत में 13–17 वर्ष के बच्चों में प्रारंभिक शराब सेवन के मामले बढ़ रहे हैं, और अधिकांश मामलों में शुरुआत आसान उपलब्धता से होती है।

टेट्रा पैक, जो दिखने में harmless लगता है, इस खतरे को और बढ़ाता है। यह केवल एक पैकेजिंग की समस्या नहीं— यह नियमन, राजस्व-प्राथमिकता, और नैतिक शासन की परीक्षा है।

## अदालत की टिप्पणी का व्यापक महत्व

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कोई आदेश पारित नहीं किया,

लेकिन भारत की न्यायिक परंपरा में कई महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव ऐसी ही मौखिक टिप्पणियों से आरंभ हुए हैं, जैसे—

 तंबाकू चेतावनी

प्रदूषण पर प्रतिबंध

 पटाखा नियमन

 वाहन उत्सर्जन नियंत्रण

संभव है यह टिप्पणी भी भारत के शराब नियंत्रण तंत्र को पुनर्विचार के लिए मजबूर करे।

## क्या राज्य शराब को ‘उपभोक्ता वस्तु’ बना चुका है?

अदालत ने जिस सीधे प्रश्न को उठाया, वह वही प्रश्न है जिसे भारत की राजनीतिक और नौकरशाही संरचना टालती आई है: "क्या भारत अपनी अगली पीढ़ी की सुरक्षा को राजस्व के लिए दांव पर लगा रहा है?"

शराब को जूस-जैसे पैक में बेचा जाना केवल एक पैकेजिंग तकनीक नहीं— यह राज्य-नीति की प्राथमिकताओं का सामाजिक-नैतिक प्रतिबिंब है।

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी शायद एक बड़ी बहस की शुरुआत हो—और यह बहस अब टाली नहीं जा सकती।