दक्षिण एशिया की अस्थिरता, न्यायिक प्रक्रियाओं की वैधता और भारत की सामरिक दुविधा
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
दक्षिण एशिया की अस्थिरता, न्यायिक प्रक्रियाओं की वैधता और भारत की सामरिक दुविधादक्षिण एशिया आज एक बार फिर इतिहास के चक्रव्यूह में फंस चुका है—जहाँ राजनीति, न्याय और भू-रणनीति तीनों का टकराव सामने है। बांग्लादेश में पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण द्वारा मानवता-विरोधी अपराधों में मौत की सज़ा सुनाया जाना न केवल ढाका की न्यायिक विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाता है, बल्कि पूरे क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे को अस्थिर करता है।
#बदलता भू-राजनीतिक संदर्भ: मित्र-शत्रु की परिभाषा उलटती हुई
1971 में पाकिस्तान की क्रूरता से मुक्त होकर बने बांग्लादेश को भारत का “प्राकृतिक साझेदार” माना गया था। परन्तु आज स्थिति लगभग उलट है—ढाका में पाकिस्तान-अनुकूल तत्व प्रभावी हैं, जबकि भारत उन पर संदेह की नज़र से देखा जा रहा है, मुख्यतः क्योंकि शेख़ हसीना भारत में निर्वासन लेकर रह रही हैं। यह वही हसीना हैं जिनके नेतृत्व में बांग्लादेश ने भारत के साथ रणनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक सहयोग के स्वर्णकाल का अनुभव किया।
लेकिन पिछले वर्ष हुए हिंसक विद्रोह और उसके बाद बनी मो. युनूस की अंतरिम सरकार ने ढाका की शक्ति संरचना को नाटकीय ढंग से बदल दिया। युनूस सरकार पर न केवल बाहरी हस्तक्षेपों का आरोप है, बल्कि पाकिस्तान की सैन्य लॉबी से अप्रत्यक्ष सटीकता-युक्त तालमेल को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
## दक्षिण एशिया में राजनीतिक हत्याओं का साया
गांधी, आंग सान, भंडारनायके, भुट्टो, शेख़ मुजीब, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, बेनज़ीर—इस उपमहाद्वीप ने राजनीतिक हत्याओं की भयावह परंपरा देखी है। 21वीं सदी में सद्दाम हुसैन की फांसी पर अमेरिका की नीयत और अंतरराष्ट्रीय विधिक प्रक्रियाओं की निष्पक्षता पर सवाल उठे थे। आज बांग्लादेश का मामला भी उसी श्रेणी में खड़ा दिखाई देता है—जहाँ न्यायिक प्रक्रिया से कहीं अधिक राजनीतिक प्रतिशोध का रंग गहरा दिखाई देता है।
## न्यायाधिकरण की विश्वसनीयता और विधिक सवाल
जिस “इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल” ने हसीना को मौत की सजा सुनाई, वह असल में बांग्लादेशी घरेलू न्यायाधिकरण है—कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं। यह वही अदालत है जिसे हसीना सरकार ने 2010 में 1971 के युद्ध अपराधों के मुकदमों के लिए स्थापित किया था।
अब इसी अदालत का राजनीतिक उपयोग होना न्यायिक नैतिकता की सबसे बड़ी विडंबना है। हसीना ने सही कहा कि—
यह सरकार निर्वाचित नहीं है,
न्याय संस्थान राजनीतिक दबाव में हैं,
और पूरे मामले का लक्ष्य “अवामी लीग को ध्वस्त करना” है।
भारत सहित दुनिया के अनेक लोकतांत्रिक देशों के लिए यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या किसी निर्वाचित नेता को उनकी गैर-मौजूदगी में चलाए गए मुकदमे में मृत्युदंड देना। अंतरराष्ट्रीय विधि और मानवाधिकार मानकों के अनुरूप है? यह उत्तर—"नही"—जितना स्पष्ट है, उतना ही असहज भी।
## मो. युनूस के नेतृत्व में बांग्लादेश: अस्थिरता का नया भू-राजनीतिक मानचित्र
युनूस के पास जनादेश नहीं, परंतु समर्थन है—उन ताक़तों का जो ढाका को पाकिस्तान-केंद्रित सुरक्षा ढांचे में वापस लाना चाहती हैं।
अवामी लीग कार्यकर्ताओं पर हमले,
हिंदू-मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर बढ़ता उत्पीड़न,
और प्रशासनिक पतन—
इन हालातों ने ढाका को एक उभरते हुए असफल राज्य के संकेत देना शुरू कर दिया है।
## भारत की कूटनीतिक दुविधा: मौन या हस्तक्षेप?
भारत आज दोहरी चुनौती का सामना कर रहा है—
1. मानवीय जिम्मेदारी: शेख़ हसीना भारत में हैं; उनकी सुरक्षा और जीवन भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि से जुड़ा प्रश्न है।
2. भूरणनीतिक अनिवार्यता: बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल में अस्थिरता सीधे भारत की सीमाओं, अर्थव्यवस्था और सुरक्षा पर प्रभाव डालती है।
भारत खुलकर हस्तक्षेप नहीं कर सकता, क्योंकि यह “आंतरिक मामलों” के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। लेकिन मौन रहना भी भारत के रणनीतिक हितों के प्रतिकूल है।
## पाकिस्तान में सैन्य–राजनीतिक पुनरुत्थान: क्षेत्रीय अस्थिरता का केंद्र
पाकिस्तान में फ़ील्ड मार्शल असीम मुनीर द्वारा संविधान संशोधन के ज़रिये सैन्य शासन का रास्ता दोबारा खोलना भी इसी बड़े क्षेत्रीय समीकरण का हिस्सा है। ढाका की नई सत्ता संरचना इस सैन्य गुटबंदी के अनुकूल दिख रही है—यह भारत के लिए चेतावनी है।
## हसीना का भविष्य: कूटनीतिक शरण, कानूनी संघर्ष और अंतरराष्ट्रीय दबाव
हसीना के बेटे सजीब वाजेद ने स्वीकार किया कि “हमें पहले से पता था कि मौत की सज़ा दी जाएगी।” यह स्पष्ट संकेत है कि फैसला पहले किया गया, न्याय बाद में लिखा गया। भारत ने उन्हें शरण देकर एक मानवीय दायित्व निभाया है, लेकिन आगे स्थिति अत्यंत जटिल होगी—
क्या भारत उन्हें राजनीतिक शरण देगा?
क्या संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस फ़ैसले को वैध मानेंगे?
क्या ढाका में न्यायिक पुनर्विचार होगा या सत्ता परिवर्तन की प्रतीक्षा करनी होगी?
# दक्षिण एशिया एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर
बांग्लादेश में हसीना के विरुद्ध यह फैसला केवल एक राजनीतिक प्रतिशोध नहीं है; यह दक्षिण एशिया में उभरते नए शक्ति-तंत्र का स्पष्ट संकेत है— जहाँ न्याय का हथियार राजनीतिक दंड बन चुका है, और अस्थिरता को भू-राजनीतिक साधन की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
यह पूरा परिदृश्य भारत को एक सतर्क, सक्रिय और संतुलित कूटनीतिक रणनीति अपनाने की मांग करता है। क्योंकि बांग्लादेश का तूफ़ान, चाहे भारत चाहे या न चाहे, उसकी सीमाओं से टकराए बिना नहीं रहेगा।
