स्त्री : उपनिषदों की अनहद-ध्वनि
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
स्त्री : उपनिषदों की अनहद-ध्वनि
स्त्री
ब्रह्म की वह अध्या-शक्ति है
जिसे ऋषि नाद कहते हैं,
और योगी कुंडलिनी।
वह पृथ्वी की तरह चुप नहीं—
प्रकृति का मौन ॐ है,
जिसमें सृष्टि का
पहला स्पंदन छिपा है।
विश्व एक विचार था—
और उस विचार का पहला गर्भ
स्त्री ही थी।
वह गुरु नहीं बनती—
क्योंकि ज्ञान की नदियाँ
पहले उसी की देह में
ध्वनि बनकर बहती हैं।
पहली लोरी
पहला मंत्र है;
पहली गोद
पहला आश्रम;
पहली स्पर्श
पहला उपनिषद।
पर यह भी अधूरा है—
क्योंकि वही स्त्री
कभी गार्गी बनकर
ब्रह्म की परतें खोलती है—
“याज्ञवल्क्य, उस सूत के परे
क्या है जो सबको बाँधता है?”
और कभी मैत्रेयी,
जो अमरत्व को परिभाषित करती है—
“धन से नहीं,
केवल आत्मा से
मेरी प्यास बुझेगी।”
स्त्री—
प्रश्न नहीं पूछती,
प्रश्न को जन्म देती है।
और कभी-कभी
उत्तर भी।
उसकी नीरवता
शून्य की तरह लगती है—
पर वही शून्य
पूर्ण का पहला बीज है।
वही दक्षिणा —
ज्ञान का अनिवार्य अर्ध।
वह वृक्ष की छाया भी है
पर जड़ की अंधी तपस्या भी।
वह अग्नि की तपन भी
और अग्नि को जन्म देने वाली लकड़ी भी।
स्त्री का मूल स्वरूप "श्री" है—
सौंदर्य नहीं, सत्य का प्रस्फुटन।
कोमलता नहीं, चेतना की लय।
सहनशीलता नहीं,
धर्म का ध्रुवतारा।
वह केवल जल नहीं—
वह अपरा भी है और परा भी।
केवल सृजन नहीं—
स्व-ज्ञान की अनंत इच्छा।
जब वह नदी बनती है
तो पर्वत को अपनी ओर मोड़ लेती है;
जब वह पर्वत बनती है
तो बादल भी उससे दिशा पूछते हैं।
उसके कदमों में
सभ्यताएँ अंकुरित होती हैं—
और उसकी दृष्टि में
उनका भविष्य लिखा होता है।
माँ—
पहली ऋचा,
पहला वेद,
पहला आत्मज्ञान।
पर वही माँ—
जब शास्त्र खोलती है,
जब समीकरण हल करती है,
जब प्रयोग की व्याख्या करती है—
तो वह केवल गुरु नहीं रहती,
ऋषि बन जाती है।
और ऋषि का लिंग नहीं होता—
केवल तेज होता है।
पुरुष चाहे सूर्य हो,
पर प्रकाश का अर्थ
धरती ही तय करती है।
राधा रहस्य है,
कृष्ण उसका उत्तर।
शक्ति बीज है,
शिव केवल आसन।
स्त्री—
उपनिषदों की वह पंक्ति है
जो कही नहीं जाती,
पर सुनी जाती है—
अंतर में।
वह सत्य की छाया नहीं,
सत्य का प्रकाश है।
गुरु को जन्म देती है—
हाँ।
पर जब उसकी चेतना जागती है,
वह स्वयं
उपनिषद बन जाती है—
और दुनिया
उसके मौन में
अपना दीप पाती है।
