सोनम वांगचुक: 52 दिन की हिरासत, एक लोकतंत्र की परीक्षा
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
सोनम वांगचुक: 52 दिन की हिरासत, एक लोकतंत्र की परीक्षा
लद्दाख के पर्यावरणविद्, शोधकर्ता और शिक्षा-सुधारक सोनम वांगचुक इस समय नेशनल सिक्योरिटी एक्ट (NSA) के तहत 52 दिनों से नजरबंदी में हैं। उनकी गिरफ्तारी न केवल लद्दाख प्रदेश के अधिकारों से जुड़ा मुद्दा है, बल्कि यह व्यापक अर्थों में हमारे लोकतांत्रिक चरित्र, असहमति के प्रति हमारी सहनशीलता, और संवैधानिक दायित्वों के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता का भी प्रश्न बन चुका है।
वांगचुक की गतिविधियाँ किसी भी राजनीतिक अतिवाद या हिंसक समूह से संबद्ध नहीं रही हैं। उलटे, बीते तीन दशकों में वह उन दुर्लभ भारतीय नागरिकों में से रहे हैं जिनके कार्य—जल संरक्षण, हिमनद सुरक्षा, शिक्षा-सुधार और स्थायी विकास मॉडल—देश-विदेश में सराहे गए हैं। ऐसे व्यक्ति पर NSA का प्रयोग, अपने आप में एक असामान्य स्थिति है—और इसलिए गंभीर समीक्षा की मांग करता है।
1. वादे से विवाद तक: 6th शेड्यूल का आधार
लद्दाख के विभाजन के बाद (2019), केंद्र सरकार ने सार्वजनिक रूप से यह आश्वासन दिया था कि लद्दाख की जनजातीय विरासत, भूमि-अधिकार और सांस्कृतिक-सुरक्षा को मजबूत संवैधानिक संरक्षण दिया जाएगा।
इन वादों का आधार केवल राजनीतिक घोषणा नहीं था।
कई संसदीय समितियों—विशेषकर आदिवासी मामलों की समितियों—ने भी छठे अनुसूची (Sixth Schedule) के प्रावधानों पर विचार करने की अनुशंसा की थी। यह प्रावधान भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासी समुदायों को स्वशासन, परंपरागत संसाधनों पर अधिकार और सांस्कृतिक संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए लागू है।
वांगचुक की मांग ठीक इन्हीं संवैधानिक वादों का अनुसरण करती है। न वह किसी अलग राज्य की मांग कर रहे हैं, न राजनीतिक विघटन की; सिर्फ वही संरक्षण, जिसका वादा स्वयं केंद्र ने 2019 में किया था। ऐसी मांगों को “राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा” कहना न तो कानून की भाषा में फिट बैठता है, और न लोकतांत्रिक विमर्श के मानकों पर।
2. वांगचुक: व्यक्ति नहीं, एक प्रतीक
सोनम वांगचुक की चर्चा केवल इसलिए नहीं होती कि वह “थ्री इडियट्स” फिल्म के किरदार प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। उनकी वास्तविक उपलब्धियाँ कहीं बड़ी हैं—
• उन्होंने हिमालयी क्षेत्रों में आइस-स्तूप जैसी तकनीक विकसित की,
• छात्रों के लिए नवाचार-आधारित SECMOL मॉडल स्थापित किया,
• ग्लेशियर पिघलने,
• चारागाह संकट,
• जल-संसाधनों के क्षरण
पर लगातार शोध किया।
उन्हें रैमन मैग्सेसे अवार्ड और कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले।
ऐसा व्यक्ति… जो वैज्ञानिक है, शिक्षक है, पर्यावरण कार्यकर्ता है, जो हिंसा से दूर, अहिंसक तरीके से अपनी बात रखता है— उस पर NSA लगाना उस प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है जिसमें विरोध का प्रत्येक स्वर पूर्व-नियोजित खतरा मान लिया जाता है।
यह एक खतरनाक उदाहरण है।
3. NSA: कानूनी उपाय या दमन का औज़ार?
नेशनल सिक्योरिटी एक्ट (NSA) की प्रकृति असाधारण है।
इसमें—
• सामान्य न्यायालयों में तत्काल अपील नहीं,
• सबूतों का सार्वजनिक परीक्षण नहीं,
• हिरासत की अवधि लम्बी हो सकती है,
• और निर्णय पूरी तरह कार्यपालिका के विवेक पर निर्भर रहता है।
इस प्रकार के कानूनों का उद्देश्य हिंसक गतिविधियों, जासूसी, संगठित आपराधिक नेटवर्क या विदेशी हस्तक्षेप को रोकना है। परन्तु पिछले वर्षों में NSA का उपयोग कई बार शांतिपूर्ण विरोधों पर भी हुआ है। बाद में—अधिकांश मामलों में—ट्रिब्यूनल और अदालतें NSA को रद्द कर देती हैं।
लेकिन तब तक व्यक्ति महीनों जेल में रह चुका होता है।
सवाल यह है कि क्या हम अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को असहमति से इतना भयभीत बना चुके हैं कि संवैधानिक मांगें भी अब सुरक्षा-खतरा समझी जाने लगें?
4. असहमति पर मौन: राजनीतिक और सामाजिक जिम्मेदारी
वांगचुक की गिरफ्तारी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर चुप्पी असहज करती है।
• बड़े राजनीतिक दलों ने सीमित बयान दिए—वह भी औपचारिक।
• मुख्यधारा मीडिया में सीमित कवरेज हुआ।
• नागरिक समाज के प्रमुख संगठनों की प्रतिक्रिया लगभग नगण्य रही।
• सोशल मीडिया में भी कोई व्यापक अभियान नहीं दिखा।
यह मौन स्वयं एक टिप्पणी है—
और चिंताजनक टिप्पणी है—
कि धीरे-धीरे हम एक ऐसे समाज में परिवर्तित हो रहे हैं जहां
विवादित गिरफ्तारियाँ केवल उन मामलों में मुद्दा बनती हैं जिनमें राजनीतिक ध्रुवीकरण संभव हो। परंतु वांगचुक का मामला किसी “खांचे” में फिट नहीं बैठता—
इसलिए हम चुप हैं। यह चुप्पी बताती है कि लोकतंत्र में ढांचे तो बचे हैं, लेकिन प्रतिरोध की भावना क्षीण होती जा रही है।
5. लद्दाख: भूगोल से ज्यादा एक जीवन-पद्धति
लद्दाख सिर्फ एक भू-रणनीतिक सीमांत क्षेत्र नहीं है। यह अद्वितीय पारिस्थितिकी, बौद्ध परंपरा, जनजातीय पहचान, और कठोर जलवायु में विकसित सामुदायिक संरचना का प्रदेश है। यहां की आबादी विरल है; भूमि सीमित; जल-संसाधन और चरागाह जीवन के केंद्र हैं।
बीते वर्षों में लद्दाख तेजी से—
• पर्यटन,
• सैन्य गतिविधियों,
• बड़े निर्माण कार्यों
के कारण पर्यावरणीय दबाव झेल रहा है।
वांगचुक इसी संरचना पर आने वाले खतरे की चेतावनी दे रहे थे। उनकी चेतावनी राजनीतिक विरोध नहीं— व्यवहारिक और वैज्ञानिक चिंताओं पर आधारित थी। इस चेतावनी को “खतरा” कहना हमारे शासन-तंत्र की नैतिक विश्वसनीयता को ही कमजोर रता है।
6. क्या हम एक नए लोकतांत्रिक संकट में प्रवेश कर चुके हैं?
सवाल केवल वांगचुक का नहीं है। देश के कई हिस्सों में पिछले वर्षों में यह पैटर्न दिखता है—
• शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर कठोर कानून
• संवैधानिक मांगों को सुरक्षा-खतरे की तरह पेश करना
• प्रशासन के फैसलों पर सवाल उठाने वालों को चरमपंथी घोषित करना
• अदालतों की प्रक्रिया के बाहर “लंबी निरोध” को सामान्य बनाना
यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को आपातकालीन ढांचे की ओर धकेल देती है—जहां कानून का सबसे कठोर संस्करण सामान्य प्रशासनिक उपाय बन जाता है।
एक स्वस्थ लोकतंत्र अपनी आलोचना से डरता नहीं, बल्कि वह आलोचना को अपनी दिशा-सुधार की प्रक्रिया मानता है। यदि असहमति स्वयं खतरा बन जाए, तो लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनाव तक सीमित रह जाता है।
7. आगे की राह: सुनवाई, संवाद और संवैधानिक दायित्व
इस मामले में न्यायिक और विधायी दोनों स्तरों पर कुछ स्पष्ट कदम आवश्यक हैं—
1. NSA की न्यायिक समीक्षा
वांगचुक की हिरासत पर अदालत की प्रारंभिक समीक्षा त्वरित होनी चाहिए। जिस व्यक्ति की गतिविधि में हिंसा या विध्वंस का कोई इतिहास नहीं, उसके खिलाफ NSA का आधार अदालत में स्पष्ट होना चाहिए।
2. सरकार का औपचारिक स्पष्टीकरण
सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वांगचुक की कौन-सी कार्रवाई सीधे “राष्ट्रीय सुरक्षा” की श्रेणी में आती है। जब आरोप इतने गंभीर हों, तो पारदर्शिता अनिवार्य है।
3. 6th शेड्यूल पर संसदीय चर्चा
यह मांग संवैधानिक है। इसे राजनीतिक चश्मे से नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
4. नागरिक समाज की जिम्मेदारी
लोकतंत्र में आवाज केवल सत्ता की नहीं होती— जनता की भी होती है। नागरिक समाज और मीडिया का दायित्व है कि वे असहमति के अधिकार की रक्षा के लिए खड़े हों।
लोकतंत्र की जाँच-पड़ताल
सोनम वांगचुक की हिरासत हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या भारत का लोकतंत्र अब इस मोड़ पर है जहां “शांति, विज्ञान और संवैधानिकता” भी सवालों के घेरे में आ जाते हैं?
यदि देश का एक शांतिपूर्ण, शोध-आधारित और अहिंसक नागरिक भी बिना सुनवाई के 52 दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता है— तो यह केवल एक व्यक्ति की समस्या नहीं, पूरे लोकतांत्रिक ढांचे की चुनौती है। लोकतंत्र उन देशों में जीवित रहता है, जहां सरकारें मजबूत होती हैं, पर उससे भी अधिक— जहां नागरिक स्वतंत्र होते हैं।
वांगचुक का मामला इसी स्वतंत्रता की अग्निपरीक्षा है और इस परीक्षा में केवल सत्ता नहीं— हम सबकी भूमिका शामिल है। "क्योंकि लोकतंत्र चुप्पी से नहीं, संवाद और नैतिक साहस से चलता है।"
