दलित आईपीएस की मौत: मनुवाद अब भी ज़िंदा है

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

दलित आईपीएस की मौत: मनुवाद अब भी ज़िंदा है

हरियाणा के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी वाई पूरन कुमार का अंतिम संस्कार इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं हो पाया है। राज्य सरकार के दो मंत्री, मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव तक परिजनों को समझाने में जुटे हैं — ताकि वे पोस्टमार्टम और अंतिम संस्कार के लिए राज़ी हो जाएं। यह दृश्य अपने आप में भयावह है: एक अधिकारी, जिसने पूरी ज़िंदगी क़ानून और संविधान की सेवा की, उसकी मृत्यु के बाद भी न्याय की जद्दोजहद जारी है।

सरकार ने रोहतक के एसपी नरेंद्र बिजरानिया को पद से हटा दिया है। दिवंगत अधिकारी की पत्नी — स्वयं 2003 बैच की आईएएस अधिकारी अमनीत पी. कुमार — ने बिजरानिया पर आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया है। यह घटना केवल एक अधिकारी की मौत नहीं, बल्कि उस तंत्र के चेहरे पर तमाचा है, जो “सबका साथ, सबका विकास” के नारे के पीछे जातिगत विष छिपाए बैठा है।

 मौत से पहले का आख़िरी पत्र

7 अक्टूबर को अपने घर में मृत पाए गए पूरन कुमार ने एक विस्तृत सुसाइड नोट छोड़ा। उसमें लिखा — “2020 में तत्कालीन डीजीपी मनोज यादव ने मेरा उत्पीड़न शुरू किया। अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) राजीव अरोड़ा ने छुट्टी तक नहीं दी। मैं अपने बीमार पिता से मिलने नहीं जा सका। मेरे ख़िलाफ़ झूठी शिकायतें की गईं, मुझे सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया। अब और सहन नहीं कर सकता।”

उनकी पंक्तियाँ किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की चीख हैं जो आज भी जाति को योग्यता से ऊपर रखती है।

21वीं सदी का चौथाई हिस्सा बीत गया, पर मनुवाद अडिग है

कहा गया था — शिक्षा दलितों का उद्धार करेगी। परंतु क्या ज्ञान से भी गहरी कोई जड़ है, जो उन्हें बार-बार अपमान, बहिष्कार और आत्महत्या की ओर धकेल देती है? रायबरेली में हरिओम वाल्मीकि की पीट-पीटकर हत्या, दलित मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई पर जूता फेंका जाना, या वैज्ञानिक बनने का सपना देखने वाले रोहित वेमुला की आत्महत्या — यह सिलसिला रुकता नहीं।

वाई पूरन कुमार की आत्महत्या उसी भयावह श्रृंखला की अगली कड़ी है।

 संविधान बनाम मनुस्मृति

राहुल गांधी ने संसद में कहा था — “भाजपा बाबा साहेब के संविधान की जगह मनुस्मृति लाना चाहती है।” सत्ता ने इसे राजनीति कहकर टाल दिया, पर हालात यह साबित कर रहे हैं कि वे चेतावनियाँ व्यर्थ नहीं थीं।

आज जब एक दलित अधिकारी को न्याय दिलाने के लिए उसकी पत्नी — जो खुद आईएएस हैं — संघर्ष कर रही है, तो सोचिए, एक आम नागरिक के साथ क्या होता होगा?

अमनीत कुमार ने मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी को पत्र लिखकर बताया कि एफआईआर में नाम हटाए गए और एससी-एसटी एक्ट की धाराओं को कमज़ोर किया गया। यह एक प्रशासनिक चाल थी, जो आरोपियों को बचाने के लिए चली गई। पर अमनीत, कानून और सत्ता की भूलभुलैया को जानती हैं; उन्होंने आवाज़ उठाई। अगर वे आम पृष्ठभूमि से होतीं, तो शायद कहानी “मानसिक तनाव से आत्महत्या” कहकर ख़त्म कर दी जाती।

 विपक्ष बनाम सत्ता: लोकतंत्र की परीक्षा

विपक्ष ने इस पर एकजुट आवाज़ उठाई। मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और सोनिया गांधी — सभी ने सार्वजनिक रूप से समर्थन जताया।

लेकिन भाजपा के लिए यह “राजनीति” है। सवाल यह है कि क्या सत्ता के गलत कामों पर सवाल उठाना राजनीति है, या लोकतंत्र का कर्तव्य?

अगर विपक्ष चुप रहे और मीडिया दरबारी बन जाए — तो फिर लोकतंत्र और तानाशाही में फर्क ही क्या रह जाएगा?

 अंकों की गवाही

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़े चौंकाने वाले हैं:

2013 से 2023 के बीच दलितों पर अत्याचार 46% बढ़ा है, आदिवासियों पर 91%। केवल 2023 में 57,789 मामले दर्ज हुए। इनमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश (15,368), उसके बाद मध्यप्रदेश, राजस्थान और बिहार — यानी ज्यादातर भाजपा शासित राज्य। क्या यह संयोग है, या फिर एक संगठित सामाजिक मानसिकता का परिणाम?

 असली बीमारी शिक्षा की कमी नहीं, जातिवाद का ज़हर है

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था — “जाति भारत की सबसे बड़ी सामाजिक बीमारी है।”

आज भी वही सच है। दलितों की स्थिति में सुधार इसलिए नहीं हो रहा कि वे अक्षम हैं, बल्कि इसलिए कि समाज उन्हें समान नहीं मानता।

जो व्यक्ति संविधान की शपथ लेकर देश की सेवा करता है, वह भी अगर जाति के कारण अपमान झेलकर जान दे दे — तो यह न सिर्फ प्रशासन की, बल्कि हमारे सामाजिक विवेक की विफलता है।


यह सवाल अब हर भारतीय से है: "क्या हम संविधान के भारत में जी रहे हैं, या मनुस्मृति के?"

अगर दलित अधिकारी, वैज्ञानिक या छात्र — अपनी योग्यता के बावजूद अपमान और प्रताड़ना से मुक्त नहीं हैं, तो क्या यह सच नहीं कि मनुवाद मर नहीं गया — उसने बस वर्दी और सूट पहन लिया है?