लखनऊ: नहीं रचेंगे स्वांग भइया — ‘हम तो चले हरिद्वार’
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
नहीं रचेंगे स्वांग भइया — ‘हम तो चले हरिद्वार’बिम्ब रंगमंडल की गुदगुदाती प्रस्तुति ने प्रेक्षागृह को ठहाकों से भर दिया
– अख़बारी विज्ञापन बना जब जी का जंजाल
लखनऊ, 12 अक्तूबर : कहते हैं, एक झूठ के पीछे कितने झूठ और कितने स्वांग रचने पड़ते हैं — और अंततः थककर इंसान कह उठता है, “हम तो चले हरिद्वार।” ऐसा ही हास्य और व्यंग्य से भरपूर दृश्य देखने को मिला जब बिम्ब सांस्कृतिक समिति रंगमंडल ने नाटककार रामकिशोर नाग के लिखे चर्चित हास्य नाटक ‘हम तो चले हरिद्वार’ का मंचन राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में किया। इस नाट्य संध्या का आयोजन संस्कृति मंत्रालय (भारत सरकार), संस्कृति निदेशालय उत्तर प्रदेश, तथा भारतीय स्टेट बैंक के सहयोग से हुआ।
नाटक की कथा उस समय की है जब एक बुजुर्ग पिता अखबार में विज्ञापन दे बैठते हैं — कि यदि उनके बेटे–बहू ने एक वर्ष में उन्हें दादा–दादी नहीं बनाया, तो उन्हें पाँच करोड़ रुपये का हर्जाना भरना होगा। इस एक विज्ञापन से शुरू होती है झूठ, भ्रम और हास्य से भरी एक लड़ी — जिसमें हर झूठ एक नया स्वांग रचता है। बेटा रवि और बहू ज्योति (क्रमशः अभिषेक कुमार पाल और इशिता वार्ष्णेय) इन शर्तों में उलझकर कई हास्यास्पद उपाय करते हैं — कभी फर्जी मेडिकल सर्टिफिकेट, कभी काल्पनिक गर्भ रिपोर्ट, तो कभी लकवाग्रस्त पिता का अभिनय। जब झूठ अपने चरम पर पहुँचता है, तो चन्द्रप्रकाश बाबू (गुरुदत्त पांडेय) खुद थककर कहते हैं — “अब नहीं रचेंगे स्वांग भइया, हम तो चले हरिद्वार!यह संवाद पूरे नाटक का भावनात्मक–हास्य केंद्र बन गया।निर्देक महर्षि कपूर की दृश्य परिकल्पना और नियति नाग के संगीत ने नाटक को गति और सहजता दी। प्रकाश संचालन तमाल बोस का था, जबकि मंच–सज्जा और वेशभूषा में सरिता कपूर, सारिका श्रीवास्तव, लकी चौरसिया, नेहा चौरसिया, अनुकृति श्रीवास्तव, अक्षत श्रीवास्तव और आस्था श्रीवास्तव ने सहयोग किया। ‘बुआजी’ की भूमिका में नीलम वार्ष्णेय, पहले बॉस विवेक रंजन सिंह और दूसरे बॉस अम्बुज अग्रवाल ने अपनी छोटी भूमिकाओं में भी दर्शकों को खूब हँसाया।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि एमएलसी पवन सिंह चौहान ने रंगमंच समीक्षक राजवीर रतन को अंगवस्त्र और स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया।पूरा प्रेक्षागृह ठहाकों से गूंज उठा जब मंच पर झूठ, प्रेम और परिवार के द्वंद्व का यह सिलसिला हंसी–हंसी में एक जीवन–संदेश छोड़ गया
कि सच्चाई भले मुश्किल लगे, पर झूठ का बोझ और भारी होता है।
“हम तो चले हरिद्वार” — एक ऐसा नाटक जो हँसाते–हँसाते सच का आईना दिखा गया।