मायावती और दलित राजनीति का पुनर्मूल्यांकन।
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
कांशीराम की विरासत, सत्ता की गणित और संवैधानिक चेतना के बीच फंसी एक नेता की चुप्पी
9 अक्तूबर की लखनऊ रैली केवल एक राजनैतिक आयोजन नहीं थी — वह भारत की दलित राजनीति के आत्ममंथन का अवसर भी थी। कांशीराम की पुण्यतिथि पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती तेरह वर्षों के अंतराल के बाद जिस उत्साह से मंच पर लौटीं, वह इस उम्मीद का संकेत था कि शायद दलित समाज की राजनीति में फिर से ऊर्जा का संचार होगा। लेकिन जो दृश्य उपस्थित हुआ, वह एक अलग ही कथा कह गया — विरासत तो बची, पर दृष्टि लुप्त हो गई।
१. राजनीति का यथार्थ: विरोध का भय और अस्तित्व का संकट
मायावती की रैली में उमड़ी भीड़ यह प्रमाण थी कि दलित समाज में अब भी सत्ता से विमुख और न्याय की आकांक्षा रखने वाली चेतना जीवित है। परन्तु मंच से दी गई मायावती की वाणी में उस भीड़ का आक्रोश अनुपस्थित था। उन्होंने भाजपा सरकार की आलोचना करने के बजाय आभार व्यक्त किया।
राजनीतिक दृष्टि से यह केवल रणनीतिक मौन नहीं, बल्कि संवैधानिक विरोध की आत्मा से विच्छेद है। जब दलितों पर अत्याचार, उत्पीड़न और प्रशासनिक पक्षपात की घटनाएँ उत्तर प्रदेश में निरंतर बढ़ रही हैं, तब एक दलित नेता का मौन न केवल नैतिक असफलता है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रतिरोध की कमजोर कड़ी भी बनता है।
ईडी और आयकर विभाग की फाइलें जो उनके सिर पर लटकी हैं, उन्होंने उनके राजनीतिक स्वर को नियंत्रित कर लिया है। एक लोकतंत्र में जब संस्थाएँ दमनकारी नियंत्रण के औज़ार बन जाएँ, तो विपक्षी नेतृत्व का मौन स्वयं उस दमन को वैधता प्रदान करता है। मायावती की चुप्पी इस शासन-यंत्र की प्रभावशीलता का सबसे स्पष्ट उदाहरण बन चुकी है।
२. संवैधानिक परिप्रेक्ष्य: दलित राजनीति का विच्छेद
कांशीराम और बाबा साहेब अंबेडकर की राजनीति का मूल संवैधानिक सशक्तिकरण था — राजनीतिक सत्ता को सामाजिक न्याय के माध्यम के रूप में देखना। मायावती ने इस विचार को मूर्त रूप दिया था जब उन्होंने कहा था — “हमारी राजनीति सत्ता नहीं, स्वाभिमान के लिए है।”
लेकिन मौजूदा दौर में बसपा ने संविधान की रक्षा को राजनीतिक कार्यक्रम से लगभग बाहर कर दिया है। जब सुप्रीम कोर्ट के दलित न्यायाधीश पर सार्वजनिक अपमान होता है, जब दलितों के घरों पर बुल्डोज़र चलता है, जब आरक्षण नीति को परोक्ष रूप से निष्प्रभावी किया जाता है — तब बसपा की राजनीतिक चुप्पी संवैधानिक नैतिकता पर प्रश्नचिह्न है।
संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, वह दलित चेतना का राजनैतिक पुनर्जन्म है। मायावती का यह रुख़ उस पुनर्जन्म की आत्मा के विरुद्ध है।
३. सामाजिक ताने-बाने की दरारें
दलित राजनीति का अस्तित्व केवल वोटबैंक नहीं,
बल्कि सामाजिक संवाद का पुल था — जिसने जाति व्यवस्था की दीवारों में दरार डाली थी। आज वही पुल टूटता नज़र आता है।
भाजपा का ‘समरसता’ मॉडल प्रतीकात्मक समावेश का भ्रम रचता है — दलितों के घर भोजन करने की दृश्यात्मकता से सामाजिक बराबरी नहीं आती। जब सत्ताधारी दल प्रतीकों की राजनीति करता है, और विपक्ष (विशेषकर मायावती) मौन की राजनीति — तो दलित समाज के पास केवल निराशा का विकल्प बचता है।
यह निराशा केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक असुरक्षा और सम्मानहीनता की गहराती भावना है। जो जनता लखनऊ के मैदान में उमड़ी थी, वह बसपा की नहीं — अपने आत्मसम्मान की तलाश में थी।
४. दलित विमर्श और नेतृत्व का वैक्यूम
मायावती की मौजूदा स्थिति केवल एक व्यक्ति की राजनीतिक गिरावट नहीं, बल्कि दलित विमर्श में वैचारिक रिक्तता का संकेत है। कांशीराम ने “बहुजन” की अवधारणा दी थी - जिसमें दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक एक साझा संघर्ष में बंधे थे। आज बसपा का राजनीतिक क्षितिज इस बहुजन एकता से सिमटकर व्यक्तिकेंद्रित संगठन में बदल गया है।
दलित समाज का वैचारिक भविष्य अब इस सवाल पर निर्भर करता है कि — क्या वह फिर से संविधान, संघर्ष और सामाजिक एकजुटता की धुरी पर लौट सकेगा? या वह प्रतीकवाद और जातीय अलगाव में सिमटकर अपने ही स्वप्न का अंत कर देगा?
५. मायावती का मौन और भारतीय लोकतंत्र की परीक्षा
मायावती का मौन केवल बसपा की कमजोरी नहीं है — यह भारतीय लोकतंत्र की नैतिक परीक्षा भी है। जब एक दलित नेता सत्ता से भयभीत होकर प्रतिरोध का स्वर खो देती है, तो लोकतंत्र में ‘असहमति की गरिमा’ भी कमज़ोर पड़ती है।
दलित राजनीति का मूल प्रश्न अब यही है — क्या वह संविधान की आत्मा के साथ फिर खड़ी हो सकेगी? या फिर सत्ता के इर्द-गिर्द घूमती रह जाएगी?
कांशीराम की विरासत कहती है — “जो सत्ता से डर गया, वह समाज से भी कट गया।” मायावती आज उसी दोराहे पर खड़ी हैं — "जहाँ एक राह सत्ता की सुविधा की ओर जाती है, और दूसरी संविधान की गरिमा की ओर।"
"दलित राजनीति का संकट केवल नेतृत्व का नहीं, बल्कि दृष्टि का है। मायावती का मौन उस दौर का प्रतीक है जहाँ विरासत बची है, पर विचार विलुप्त हैं।"