पत्रकारिता: सुविधा का विस्फोट, संवेदना का विसर्जन।
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
पत्रकारिता: सुविधा का विस्फोट, संवेदना का विसर्जनक्या पत्रकारिता इतनी आसान है? नहीं। पत्रकारिता कभी आसान नहीं थी क्योंकि पत्रकारिता सिर्फ़ खबर लिखना नहीं — खबर में सच्चाई बचाना है और सच्चाई अब सबसे महँगी चीज़ है।
1. जब स्याही में आत्मा थी
अस्सी और नब्बे का भारत तकनीकी रूप से पिछड़ा था, पर पत्रकारिता नैतिक रूप से विकसित थी।
आठ-दस पन्नों का अखबार, सीमित साधन, पर सीमाओं से परे दृष्टि।
टेलीप्रिंटर की खटखट, संपादक की लाल कलम, और एक जिम्मेदारी — जनता को बताना कि देश में क्या हो रहा है, और क्या छिपाया जा रहा है।
"तब अखबार सत्ता का नहीं, समाज का आईना थे।
पत्रकार जनता के प्रतिनिधि थे — सत्ता के प्रवक्ता नहीं।"
2. आज सबकुछ है — पर पत्रकारिता नहीं है
आज के पास सब है — ड्रोन कैमरा, आईफोन, इंटरनेट, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, करोड़ों की मशीनें, 24×7 न्यूज़ चैनल, लाखों यूट्यूब चैनल। हर गली में माइक है, पर आवाज़ नहीं। हर चेहरे पर “प्रेस” लिखा है, पर सच बोलने की हिम्मत नहीं।
"खबरें हैं, पर खबरों में देश नहीं है। देश के लोग हैं, पर मीडिया में लोग नहीं हैं।"
गांव गायब हैं, किसान गायब हैं, मजदूर गायब हैं।
स्क्रीन पर केवल सत्ता की मुस्कान और विरोध की निंदा है। बाकी सब 'कंटेंट' है।
3. खबर अब माल है — पत्रकार अब सेल्समैन
पहले पत्रकार जनता की आवाज़ उठाते थे, अब ‘प्रोडक्ट’ बेचते हैं। पहले अखबार ज़मीर से छपते थे, अब ब्रांड बुक से। पहले ‘स्कूप’ का मतलब था सच्चाई उजागर करना, अब ‘स्कूप’ का मतलब है — टीआरपी, ट्रेंड, और ट्रोल्स।
पत्रकारिता अब विचार नहीं, व्यवसायिक प्रोडक्शन यूनिट है। संपादक अब निर्णय नहीं लेते, मार्केटिंग टीम लेती है और मीडिया हाउस अब जनता की नब्ज़ नहीं, कॉर्पोरेट की पल्स रिपोर्ट पढ़ते हैं।
4. जब नरसंहार भी हेडलाइन नहीं बनता
कभी एक गोलीकांड अखबारों के पहले पन्ने पर हफ्तों चलता था। अब पूरा नरसंहार, विस्थापन या दमन एक “ब्रेकिंग” बनकर मर जाता है। अगले घंटे किसी अभिनेत्री के इंस्टाग्राम पोस्ट से दब जाता है।
आंदोलन अब भी होते हैं — लद्दाख में सोनम वांगचुक, असम में छात्र, झारखंड में आदिवासी, उत्तरप्रदेश में किसान — पर मीडिया कैमरा तब तक नहीं जाता, जब तक सत्ता अनुमति न दे।
"मीडिया अब जनता से संवाद नहीं करता — सत्ता से सौदा करता है।"
5. संपादक अब पुतले हैं, पत्रकार अब प्रवक्ता
पहले अखबारों के संपादक देश की दिशा तय करते थे। आज कोई संपादक जनता को जानता नहीं, जनता संपादक को नहीं पहचानती क्योंकि संपादक अब सिर्फ़ सिग्नेचर हैं — फैसले कहीं और होते हैं। सत्ता के डर और विज्ञापन के लोभ ने उन्हें किराए का नैतिकतावादी बना दिया है।
और पत्रकार?
कभी जनता के बीच चलते थे, अब स्टूडियो में बैठकर जनता को कोसते हैं।
6. सूचना महाविस्फोट नहीं, सूचना महाभ्रम है
यह युग “इन्फॉर्मेशन एक्सप्लोजन” नहीं, “इन्फॉर्मेशन कन्फ्यूजन” का है। लाखों खबरें, पर कोई दिशा नहीं। हर चैनल चीखता है “ब्रेकिंग”, पर टूटता है केवल विवेक।
"पत्रकारिता अब डेटा की बाढ़ में डूब चुकी है —
जहां सच्चाई की नाव डूब गई है।"
7. असहमति का साहस ग़ायब, सहमति की संस्कृति जीवित
पहले पत्रकार सत्ता से डरते नहीं थे — अब सत्ता की छाया में चैनल चलाते हैं। पहले सवाल पूछना धर्म था, अब ‘सस्पेंड’ होने का कारण है। पहले असहमति पत्रकारिता थी, अब अपराध है।
"पत्रकारिता लोकतंत्र की आँख थी — अब उसका मेकअप है।"
8. अब पत्रकारिता पेशा नहीं, प्रपंच है
आज पत्रकारिता के पास कैमरे हैं, पर नज़र नहीं।
माइक हैं, पर आवाज़ नहीं। टीम हैं, पर आत्मा नहीं।
जनता के सवाल अब एंकर की हंसी में गुम हो गए हैं, विपक्ष के मुद्दे ‘डिबेट शो’ की नाटकीय स्क्रिप्ट बन गए हैं। और पत्रकारिता, जो कभी लोकतंत्र की आत्मा थी, अब लोकतंत्र का विज्ञापन बन चुकी है।
"आख़िर सवाल वही — पत्रकार कहां हैं? और अगर हैं भी — तो किसके लिए हैं?"