सुविधा, सत्ता और अर्थ: मनुष्य की आधुनिक त्रासदी
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
सुविधा, सत्ता और अर्थ: मनुष्य की आधुनिक त्रासदी
मनुष्य अपनी सुविधा से सोचता है, बुद्धि से नहीं
हम हमेशा यह मानते हैं कि हमारे विचार हमारे विवेक और बुद्धि का परिणाम हैं। लेकिन इतिहास और वर्तमान पर गौर करें तो यह धारणा जितनी सुंदर है, उतनी सच नहीं। मनुष्य वास्तव में अपनी सुविधा के हिसाब से सोचता है। जब उसे भोजन और आश्रय की जरूरत थी, तब उसने ‘परिवार’ और ‘समाज’ का विचार बनाया।
भूमि सीमित होने लगी तो ‘मालिकियत’ का जन्म हुआ। श्रम बाँटने की जरूरत आई तो ‘जाति’ और ‘वर्ग’ का निर्माण हुआ और जब समानता की मांग हुई, तब लोकतंत्र ने जन्म लिया।
हर बड़ा विचार किसी न किसी असुविधा का समाधान था और जब सुविधा बदल गई, वही विचार पुराना या अप्रासंगिक घोषित कर दिया गया। इसका तात्पर्य यह है कि बुद्धि स्थिर रहती है, लेकिन सुविधा बदलती है। और उसके साथ बदल जाता है ‘सत्य’ का अर्थ।
आज हम मानते हैं कि हम विज्ञान, तकनीक और तर्क के युग में हैं। लेकिन ध्यान से देखें — हर खोज, हर तर्क, हर नीति आख़िरकार हमारी सुविधा को सुरक्षित रखने के लिए बनाई गई है। मशीनें इसलिए बनीं कि मेहनत कम हो। मोबाइल इसलिए कि दूरी घटे। AI इसलिए कि सोचने का बोझ हल्का हो जाए। सुविधा के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि असुविधा हमें असत्य लगने लगी है। हम वही मानते हैं जो हमें आरामदायक बना दे।
मृत्यु नहीं, अर्थहीनता का भय
हम अक्सर कहते हैं कि मनुष्य सबसे अधिक मृत्यु से डरता है। परंतु वास्तविकता यह है कि मनुष्य मृत्यु से नहीं, अपने अर्थ खोने से डरता है। मृत्यु निश्चित है। वह सभी को आती है, बिना भेदभाव के, पर हर व्यक्ति का जीवन अर्थ से बंधा होता है। जिसके जीवन में कोई उद्देश्य नहीं, उसके लिए मृत्यु सिर्फ निरर्थकता की निरंतरता है। जिसके जीवन में अर्थ है — प्रेम, संघर्ष, सपना, विश्वास — मृत्यु केवल ठहराव है।
क्रांतिकारी जब फांसी के तख्ते पर मुस्कुराता है, कवि जब अपनी अंतिम कविता लिखता है, साधक जब ध्यान में लीन होता है — वे मृत्यु से नहीं, अर्थ से जुड़े होने से भयमुक्त होते हैं। जब अर्थ खो जाता है, जीवन धीरे-धीरे मरता है। समय, दिन-रात, कार्य — सब रंगहीन हो जाते हैं। रिश्ते, संवाद, कार्य — केवल औपचारिकता बन जाते हैं। मनुष्य बाहर से जीवित दिखता है, पर भीतर से विघटित हो जाता है।
# राजनीति में सुविधा की प्रबलता
आधुनिक लोकतंत्र में सुविधा का यह प्रभाव सबसे स्पष्ट है। राजनीति अब विचारधारा का नहीं, सुविधा के वितरण का खेल बन गई है। जनता नागरिक नहीं, उपभोक्ता बन गई है। राजनीतिक दल वोट और रियायतों के आधार पर निर्णय लेते हैं, न कि नैतिक या संवैधानिक आधार पर।
संविधान ने समानता, न्याय और अवसर की गारंटी दी थी। लेकिन राजनीति ने इसे ‘समान सुविधा’ में बदल दिया। जनता अब सुविधा की हद तक ही न्याय मांगती है। सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय — ये मूल्य ‘सुविधा के मापदंड’ से तय होते हैं। असुविधा अब सवाल पूछने और बदलाव लाने का अवसर नहीं, बल्कि डर और मौन का कारण बन गई है।
सुविधा का चरम रूप नैतिक विवेक को कमजोर कर देता है। जब व्यक्ति केवल आराम और सुरक्षा की तलाश में लगा हो, तो वह बदलाव और चुनौती से डरता है। राजनीति और सत्ता इसे जानती हैं। यही कारण है कि नागरिक अक्सर मौन रहते हैं।
# अर्थ का संकट और जीवन की रिक्तता
सुविधा बाहरी सुरक्षा देती है, पर भीतर से अर्थहीनता उत्पन्न करती है। मनुष्य जीवन के वास्तविक उद्देश्य से कट जाता है। वह सब कुछ पा सकता है, पर यह भूल जाता है कि क्यों पा रहा है। जीवन केवल टिके रहने का माध्यम बन जाता है, जीवित रहने और जीवन जीने में अंतर मिट जाता है।
अर्थहीन जीवन में व्यक्ति धीरे-धीरे भीतर से मरने लगता है। संबंध, कार्य, समय — सब रंगहीन हो जाते हैं। व्यक्ति बाहर से सामान्य दिखता है, पर अंदर से रिक्त हो जाता है। धर्म, संविधान, सामाजिक संस्थाएँ — सब अर्थ देने की कोशिश करती हैं, पर सुविधा ने उन्हें उपभोग का साधन बना दिया है। इस स्थिति में जीवन केवल खिंचता हुआ जीवन बन जाता है — जीना नहीं, बस टिके रहना।
सुविधा से परे: असुविधा और चेतना
इतिहास में हर महान विचार और परिवर्तन तब हुआ
जब किसी ने सुविधा को चुनौती दी। बुद्ध ने महलों और सुखों को छोड़कर ध्यान अपनाया। गांधी ने सत्ता और आराम को त्यागकर सत्याग्रह का मार्ग चुना। क्रांतिकारी फांसी पर मुस्कुराए, कवि ने अंतिम कविता लिखी, क्योंकि उनके भीतर जीवन का अर्थ मौजूद था।
सुविधा बुद्धि को सुस्त बनाती है, असुविधा चेतना को जागृत करती है। जो व्यक्ति केवल सुविधा का अनुसरण करता है, वह सुरक्षित मृत बन जाता है।
# अर्थ की खोज और जीवन का उद्देश्य
मनुष्य के जीवन का असली लक्ष्य अमर होना नहीं,
बल्कि ऐसा अर्थ खोजना है, जो हमारे जाने के बाद भी जीवित रहे। यह अर्थ किसी बाहरी संरचना, नौकरी, पद या पहचान में नहीं, बल्कि भीतर से उत्पन्न होने वाला, चेतन और सार्थक अनुभव है।
अर्थ वही है जो हमारे काम, विचार और संबंधों में जीवन की पूर्णता लाता है। कभी-कभी यह करने में, कभी-कभी न करने में प्रकट होता है। यह सिर्फ व्यक्तिगत अनुभव नहीं, सामाजिक चेतना का निर्माण भी है।
सत्य और न्याय का पालन तभी संभव है, जब व्यक्ति अपनी सुविधा से परे जाकर सोचने और निर्णय लेने की क्षमता रखता हो। जीवन का अर्थ केवल स्वयं का नहीं, बल्कि समाज और आने वाली पीढ़ियों के साथ जुड़ा होना चाहिए।
सभ्यता तभी जीवित रहती है, जब मनुष्य सोचने की असुविधा को स्वीकार करता है। क्योंकि असुविधा ही विचार और चेतना की जननी है। सुविधा केवल मौन की, जो बुद्धि और चेतना को सुस्त बना देती है।
मनुष्य की सबसे बड़ी परीक्षा अब यह नहीं कि वह कितना जानता है, बल्कि यह कि वह अपनी सुविधा से कितना ऊपर उठ सकता है। जो व्यक्ति अपने जीवन में अर्थ बनाए रखता है, वह मृत्यु से भी नहीं डरता। और जो अर्थ खो देता है, वह जीवन में जीते हुए भी मर जाता है।
सुविधा, सत्ता और अर्थ — यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। और इसी त्रासदी को समझने और पार करने में ही हमारी सभ्यता की असली परीक्षा निहित है।