बिहार की शिक्षा — बजट की चमक, हकीकत की धुंध
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
बिहार की शिक्षा — बजट की चमक, हकीकत की धुंध“बजट में शिक्षा बढ़ी है, लेकिन बच्चों की दूरी और कठिनाई भी उतनी ही बढ़ गई है।”
बिहार सरकार ने मौजूदा वित्त वर्ष (2025-26) में शिक्षा के लिए 21.7 प्रतिशत यानी लगभग 61 हज़ार करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। यह आंकड़ा सुनकर लगता है कि राज्य शिक्षा को लेकर बेहद गंभीर है। लेकिन जब ज़मीन पर नज़र डालें तो तस्वीर उलट मिलती है। सवाल यह उठता है कि इतने बड़े बजट का असली असर कहाँ है? क्या बच्चों की पढ़ाई बेहतर हुई? क्या स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर सुधरा? या फिर यह सब महज़ आंकड़ों और काग़ज़ी योजनाओं की बाज़ीगरी है?
2019 में सरकार ने आदेश दिया था कि जर्जर या खुले आसमान में चल रहे स्कूलों को पास के मज़बूत भवनों वाले स्कूलों में शिफ्ट किया जाए। सुनने में यह फैसला तार्किक लगा, लेकिन इसके नतीजे बेहद तकलीफ़देह साबित हुए। पटना ज़िले का सैदपुर इसका ज्वलंत उदाहरण है—जहाँ स्कूल गिरने के बाद बच्चों को दो किलोमीटर दूर भेज दिया गया। शिक्षा का अधिकार कानून कहता है कि प्राथमिक स्कूल बच्चों के घर से एक किलोमीटर के भीतर होना चाहिए, लेकिन सरकार ने इस नियम को ताक़ पर रख दिया। बच्चों को धूप, प्यास और थकान का बोझ उठाना पड़ रहा है, नतीजतन पढ़ाई से उनका मन ही हटने लगा।
नई शिक्षा नीति 2020 के तहत स्कूल कॉम्प्लेक्स पॉलिसी और मर्जर मॉडल लागू हुआ। सरकार ने दावा किया कि इससे संसाधनों का बेहतर उपयोग होगा। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इस नीति ने हज़ारों बच्चों को शिक्षा से दूर धकेल दिया। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफॉर्मेशन सिस्टम (यू-डीआईएसई) के आंकड़े बताते हैं कि एक ही साल में बिहार के 1,800 स्कूल घट गए और लगभग पाँच लाख बच्चे शिक्षा से वंचित हो गए। यह किसी भी सरकार के लिए शर्मनाक आँकड़ा है, लेकिन बिहार सरकार इसे उपलब्धि की तरह पेश कर रही है।
मुजफ्फरपुर जैसे जिलों में स्कूलों की हालत यह है कि बच्चे और शिक्षक जर्जर कमरों में ठुंसे हुए हैं। न पीने का पानी है, न शौचालय। कहीं एक ही कैंपस में तीन-तीन स्कूल चला दिए गए हैं, तो कहीं प्राथमिक स्कूल को बिना तैयारी उच्च माध्यमिक में अपग्रेड कर दिया गया है। बच्चों की संख्या बढ़ी, लेकिन कमरों और शिक्षकों की संख्या जस की तस रही। यह सुधार नहीं, बदइंतज़ामी का विस्तार है।
आँकड़े साफ़ कहते हैं कि संकट गहराता जा रहा है। 2018-19 की स्थिति यह थी कि इंटर के केवल 4% छात्र ही नियमित स्कूल पहुँचते थे। आज भी ड्रॉपआउट दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। पाँचवीं तक पहुँचते-पहुँचते 10 हज़ार में से 290 बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं—जबकि देश का औसत 190 है। सबसे दर्दनाक सच्चाई यह है कि जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर ऊँचा होता है, लड़कियों की संख्या लगातार घटती जाती है। यानी सरकार की नीतियाँ गरीब और हाशिये के बच्चों को शिक्षा से और दूर कर रही हैं।
सच्चाई यह है कि बिहार सरकार का शिक्षा मॉडल दिखावे का है। काग़ज़ पर स्कूल अपग्रेड हो रहे हैं, आँकड़ों में बजट बढ़ रहा है, लेकिन हकीकत में बच्चे स्कूल तक पहुँच ही नहीं पा रहे। शिक्षा की असल चुनौतियाँ—बुनियादी ढाँचा, प्रशिक्षित शिक्षक, सुरक्षित माहौल और गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई—आज भी अधूरी हैं।
निष्कर्ष यह है कि शिक्षा सुधार सिर्फ़ घोषणाओं से नहीं, बल्कि ईमानदार राजनीतिक इच्छाशक्ति और ज़मीनी कार्यवाही से आता है। जब तक सरकार शिक्षा को चुनावी नारों और बजटीय खेल से बाहर नहीं निकालेगी, तब तक बच्चों का भविष्य काग़ज़ों में ही चमकता रहेगा और हकीकत में अंधेरे में डूबा रहेगा।
“बिहार में शिक्षा का बजट बढ़ा है, लेकिन बच्चों का भविष्य अब भी गिरवी पड़ा है।”