भाषा की राजनीति और लोकतंत्र का क्षरण

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

भाषा की राजनीति और लोकतंत्र का क्षरण

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा पाँच प्रमुख हिन्दी समाचार चैनलों को यह नोटिस भेजना कि उनके कार्यक्रमों में लगभग तीस प्रतिशत उर्दू शब्द प्रयुक्त हो रहे हैं, न केवल हास्यास्पद है बल्कि खतरनाक संकेत भी देता है। यह घटना बताती है कि मोदी सरकार और उसके समर्थक वर्ग की प्राथमिकताएँ किस दिशा में जा चुकी हैं—जहाँ नागरिकों की वास्तविक समस्याएँ, बाढ़, महँगाई, बेरोज़गारी और सामाजिक असमानता जैसी विकट चुनौतियाँ हाशिये पर डाल दी जाती हैं, और भाषा के नाम पर सांप्रदायिक विभाजन को नया जीवन दिया जाता है।

यह सवाल कोई मामूली नहीं है। हिन्दी भाषा अपने वर्तमान रूप में सदियों से विविध भाषाओं के संगम का परिणाम है। फ़ारसी, अरबी, संस्कृत, तुर्की, अंग्रेज़ी और यहाँ तक कि क्षेत्रीय बोलियों से आए असंख्य शब्द हिन्दी को समृद्ध करते हैं। “रेल”, “टमाटर” या “रिक्शा” जैसे शब्द भी हिन्दी के मूल नहीं हैं। ऐसे में किसी प्रसारण का प्रतिशत निकालना और उसमें उर्दू शब्दों की गणना करना न केवल भाषावैज्ञानिक रूप से अवैज्ञानिक है बल्कि सांप्रदायिक मानसिकता से प्रेरित कदम है।

और भी गंभीर बात यह है कि मंत्रालय ने ऐसी शिकायत पर तत्परता से कार्रवाई की, जिसे सामान्य बुद्धि से खारिज कर देना चाहिए था। यह वही मंत्रालय और वही शासन तंत्र है जिसके सामने आम नागरिक वर्षों तक अपनी बुनियादी समस्याओं के समाधान के लिए गिड़गिड़ाता है। करोड़ों लोग पेंशन, मुआवज़ा या न्याय के लिए फाइलों में दबे रहते हैं। लेकिन जैसे ही कोई तथाकथित “देशभक्त” उर्दू के प्रतिशत की गिनती करने लगे, पूरा सरकारी तंत्र सक्रिय हो जाता है। यह प्राथमिकताओं का ऐसा उलटफेर है जो लोकतंत्र के लिए घातक है।

यह प्रवृत्ति नई नहीं है। गांधीजी ने ‘हिन्दुस्तानी’—हिन्दी और उर्दू का सम्मिलित रूप—को भारतीय जनता की साझा भाषा माना था। गोडसे जैसे कट्टरपंथियों को यही सबसे खटकता था। आज वही विचारधारा सत्ता की नीतियों में झलक रही है। भाषा को शुद्ध करने के नाम पर दरअसल समाज को विभाजित करने का खेल खेला जा रहा है।

सरकार का कर्तव्य है कि वह विविधता का सम्मान करे, न कि भाषा को भी सांप्रदायिक रंग से रंग दे। उर्दू का हिन्दी से बैर नहीं, बल्कि उसका साथ है; दोनों मिलकर उस सांस्कृतिक गंगा-जमुनी तहज़ीब का निर्माण करती हैं जो भारत की आत्मा है। इसे खारिज करना न केवल भाषाई अज्ञान है, बल्कि उस साझी विरासत को नष्ट करना है जिसने भारत को सैकड़ों वर्षों तक जोड़े रखा है।

निष्कर्षतः—यह नोटिस केवल चैनलों को नहीं, बल्कि पूरे समाज को चेतावनी है कि आने वाले समय में हमारी बोलचाल, खान-पान और जीवनशैली तक को “देशभक्ति” की कसौटी पर परखा जाएगा। लोकतंत्र का भविष्य तभी सुरक्षित रहेगा जब हम इस तरह की बेतुकी और संकीर्ण राजनीति को ठुकराएँ और अपनी भाषाई-सांस्कृतिक विविधता को गर्व से अपनाएँ।

“जिस दिन भाषा पर पहरा बिठा दिया जाएगा, उसी दिन लोकतंत्र की ज़ुबान काट दी जाएगी।”