यूपी भाजपा अध्यक्ष: राजनीति की खिचड़ी और तंत्र-मंत्र की राजनीति
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
यूपी भाजपा अध्यक्ष: राजनीति की खिचड़ी और तंत्र-मंत्र की राजनीतिउत्तर प्रदेश भाजपा में नए अध्यक्ष का चयन इस कदर रहस्यमय हो गया है कि यह चंद्रकांता की कहानियों और बीरबल की खिचड़ी से भी आगे निकल चुका है। “एक अनार सौ बीमार” वाली कहावत यहाँ अक्षरशः चरितार्थ होती दिख रही है। दावेदारों की लाइन ऐसी है कि मंदिर से लेकर मस्जिद, गुरुद्वारा से लेकर गिरिजाघर, और बंगाली बाबा से लेकर भूत-प्रेत-जिन्न तक सबकी परिक्रमा पूरी कर ली गई है। सवाल यही है कि कुर्सी की यह खिचड़ी कब पकेगी और किसके हिस्से परोसी जाएगी?
दरअसल, इस कुर्सी का महत्व मात्र सत्ता का प्रतीक नहीं है। यह आने वाले त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव और 2027 के विधानसभा चुनाव की चाबी है। अध्यक्ष वही होगा जिसके इशारों पर टिकट बंटेंगे, और टिकट बंटे तो सत्ता का गणित भी उसी के नाम होगा।
यही कारण है कि मंत्रीपद का सुख छोड़ने तक की बेचैनी नेता दिखा रहे हैं। क्योंकि अध्यक्ष बनना केवल संगठन का मुखिया होना नहीं, बल्कि सत्ता के समीकरणों का व्यापारी होना भी है। आरोप बार-बार लगते हैं कि भाजपा भी अब बसपा की राह पर टिकट और पद की नीलामी करने लगी है। और इन आरोपों को लीपापोती से ढकने की परंपरा भी किसी रहस्य से कम नहीं।
# जाति समीकरण और सत्ता का गणित
उत्तर प्रदेश जैसे जातीय समीकरणों वाले प्रदेश में अध्यक्ष पद की लड़ाई केवल दावेदारी की नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिनिधित्व की भी है। 2024 की हार ने भाजपा को यह सिखाया कि जातीय रणनीति में जरा सी चूक भी महँगी पड़ सकती है। अखिलेश यादव का पीडीए नारा भाजपा के लिए अब तक का सबसे बड़ा सिरदर्द है। इसलिए इस बार अध्यक्ष का चुनाव जातीय समीकरणों के चश्मे से होगा—पिछड़े बनाम ब्राह्मण बनाम अन्य वर्ग।
भूपेंद्र चौधरी का कार्यकाल साफ संदेश दे चुका है कि केवल “योगी विरोधी चेहरा” होना अध्यक्षता की गारंटी नहीं है। उनकी जाट पहचान और सीमित प्रभाव भाजपा को 2024 में डुबो गया। लिहाज़ा अब पिछड़े या ब्राह्मण—दो ही समीकरण बचते हैं। पिछड़े नेताओं में केशव प्रसाद मौर्य, स्वतंत्र देव सिंह, धर्मपाल सिंह, अमरपाल मौर्य जैसे चेहरे सक्रिय हैं। वहीं ब्राह्मण खेमे में दिनेश शर्मा, हरीश द्विवेदी, महेश शर्मा और सबसे अहम बृजेश पाठक अपने सारे पत्ते खेल रहे हैं।
# दलित क्यों हाशिए पर?
दिलचस्प यह है कि भाजपा ने अब तक उत्तर प्रदेश में एक भी दलित को अध्यक्ष नहीं बनाया। दलित समाज भाजपा का वफादार मतदाता माना जाता है, लेकिन प्रतिनिधित्व की बारी आते ही यह समाज समीकरण से बाहर कर दिया जाता है। वजह साफ है—भाजपा मानती है कि दलित वोट उसके खेमे से बाहर जाने वाले नहीं। यानी जिन्हें मनाने की जरूरत नहीं, उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी भी क्यों? यह सोच भाजपा की राजनीति का सबसे नंगा सच है।
# रहस्य, तंत्र-मंत्र और भविष्य
नवरात्रि के बहाने दावेदारों की उम्मीदें फिर से परवान चढ़ी हैं। कोई हवन करवा रहा है, कोई तंत्र-मंत्र, कोई बाबा-दरबार। लेकिन हक़ीक़त यही है कि इस कुर्सी का फैसला केवल और केवल दिल्ली दरबार करेगा। यह भी तय है कि अगर नवरात्रि में कुर्सी तय नहीं हुई, तो फिर बिहार चुनाव के बाद ही भाजपा उत्तर प्रदेश में नया अध्यक्ष खोजेगी।
सवाल यही है कि क्या भाजपा इस बार जातीय समीकरणों की भूल सुधार पाएगी, या फिर वही “गुप्त सौदेबाज़ी” वाली राजनीति दोहराई जाएगी? कार्यकर्ता इंतजार में हैं, विपक्ष ताक में है और जनता तमाशा देख रही है।
“यूपी भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी अब तंत्र-मंत्र, जातीय गणित और दिल्ली दरबार की सौदेबाज़ी का खेल बन चुकी है—जहाँ लोकतंत्र सबसे बड़ा गुमशुदा है।”