दिल्ली: दिल्ली दंगे ज़मानत, न्याय और व्यवस्था का आईना
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
दिल्ली दंगे: ज़मानत, न्याय और व्यवस्था का आईनादिल्ली दंगों के पाँच वर्ष पूरे होने को हैं। इन पाँच वर्षों में न जाने कितनी सरकारें बदलीं, नीतियाँ बदलीं और दुनिया एआई जैसे नए युग में प्रवेश कर गई। लेकिन कुछ चेहरे आज भी दिल्ली की जेलों में क़ैद हैं—बिना मुक़दमे, बिना सुनवाई, बिना न्याय। उमर खालिद, शरज़ील इमाम, गुलफ़िशां फ़ातिमा, अतहर ख़ान, अब्दुल ख़ालिद सैफ़ी, शफ़ा-उर-रहमान, मीरान हैदर, शादाब अहमद और अन्य आरोपी आज भी उसी अधर में हैं। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने उनकी ज़मानत याचिका एक बार फिर ख़ारिज कर दी।
न्याय और प्रक्रिया का संकट
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 हर नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है। सर्वोच्च न्यायालय बार-बार यह दोहराता रहा है कि ज़मानत नियम है और जेल अपवाद। लेकिन दिल्ली दंगों के मामले में यह सिद्धांत कहीं खो गया प्रतीत होता है। पाँच वर्ष से बिना मुक़दमे किसी को बंद रखना क्या न्याय कहलाएगा? या यह न्यायिक प्रक्रिया का ऐसा संकट है, जो लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुँचाता है?
कानून का असमान प्रयोग
दिल्ली पुलिस उमर खालिद के अमरावती भाषण के “इंकलाबी सलाम” और “क्रांतिकारी इस्तक़बाल” जैसे शब्दों को हिंसा भड़काने की नीयत बताती है। सवाल उठता है—क्या इन्हीं शब्दों के आधार पर किसी को हिंसक साज़िश का हिस्सा माना जा सकता है? जब भरे मंच से “देश के गद्दारों को गोली मारो” जैसे नारे लगाए जाते हैं, तब कानून का यही तराज़ू क्यों मौन हो जाता है? यही दोहरा रवैया न्यायिक असमानता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
अंतरराष्ट्रीय साख पर असर
पिछले वर्ष न्यूयॉर्क टाइम्स ने उमर खालिद की जेल पर विस्तृत रिपोर्ट छापी थी। इस रिपोर्ट में मोदी सरकार के रुख़ के साथ-साथ भारत की न्यायिक प्रणाली की भी आलोचना की गई। वैश्विक मानवाधिकार मंचों पर भारत की छवि को ऐसी घटनाएँ धूमिल करती हैं।
क्या असली अपराध पहचान है?
उमर खालिद की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं। जेएनयू से पीएचडी, आदिवासी मुद्दों पर शोध, गांधी और अहिंसा पर जोर—यह उनका बौद्धिक परिचय है। लेकिन क्या उनका मुसलमान होना और सरकार की आलोचना करना ही असली अपराध है? यह प्रश्न केवल उनकी जमानत से जुड़ा नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की समावेशी आत्मा से जुड़ा हुआ है।
दूसरे अपराधियों से तुलना
याद कीजिए—बलात्कार और हत्या का दोषी गुरमीत राम रहीम बार-बार पैरोल पर जेल से बाहर आता है। कभी चुनावों के दौरान, कभी अन्य अवसरों पर। वहीं उमर खालिद जैसे लोग पाँच वर्षों से बिना मुक़दमे जेल की सलाख़ों के पीछे हैं। यह तुलना भारतीय न्याय और कानून के असमान प्रयोग को उजागर करती है।
न्याय या केवल कानून?
न्यायपालिका केवल कानून का पालन कराने वाली संस्था नहीं है, बल्कि संविधान की आत्मा की संरक्षक भी है। जब बिना सुनवाई पाँच वर्ष किसी को जेल में रहना पड़े, तो यह केवल अभियुक्त की त्रासदी नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था की विफलता है।
भारत को यह तय करना होगा कि उसकी अदालतें और पुलिस सचमुच लोकतंत्र के प्रहरी हैं या सत्ता की इच्छाओं के औज़ार। मुक़दमा चलना चाहिए—खुलकर, निष्पक्षता से—ताकि सच सामने आए और न्याय का पलड़ा झुका हुआ न लगे। क्योंकि बिना मुक़दमे की लंबी कैद, लोकतंत्र नहीं, अधिनायकवाद का संकेत देती है।