अंधकार से ज्योति की ओर: आशा का सनातन और सार्वभौमिक संदेश

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

अंधकार से ज्योति की ओर: आशा का सनातन और सार्वभौमिक संदेश

मनुष्य का जीवन निरंतर संघर्ष और परिवर्तन की यात्रा है। जब कोई कहता है कि समाज या देश का अब कुछ नहीं हो सकता, तो वास्तव में वह अपने भीतर की पराजय को स्वीकार कर लेता है। किंतु इतिहास बार-बार यह सिद्ध करता है कि निराशा कभी अंतिम सत्य नहीं होती। अंधकार जितना भी गहन क्यों न हो, भोर का प्रकाश उससे कहीं अधिक प्रबल होता है।

वेद और उपनिषद का संदेश

उपनिषद् प्रार्थना करते हैं—“असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।”

अर्थात्—हे प्रभु! हमें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, और मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। यह केवल एक श्लोक नहीं, बल्कि मनुष्य की अनन्त यात्रा का घोष है। निराशा अंधकार है और आशा ही वह ज्योति है जो जीवन को अमर बनाती है।

 भगवद्गीता की प्रेरणा

गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को स्मरण कराते हैं— “उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।”

अर्थात्—मनुष्य को स्वयं अपने मन को ऊँचा उठाना चाहिए और स्वयं को निराशा में गिरने नहीं देना चाहिए। गीता यह भी कहती है कि कर्म ही धर्म है, और कर्म करते हुए आशा की ज्योति जीवित रहती है।

 बाइबिल का आलोक

बाइबिल में यीशु कहते हैं—“तुम संसार की ज्योति हो। पहाड़ पर बसा हुआ नगर छिप नहीं सकता।” (मत्ती 5:14)

यह वचन हमें याद दिलाता है कि प्रत्येक मानव अपने भीतर आशा का दीपक है। जब हम स्वयं प्रकाशमान होते हैं, तो समाज और देश भी प्रकाशित होता है। निराशा का अंधकार तभी मिटता है जब भीतर का प्रकाश जल उठे।

 कुरआन की शिक्षा

कुरआन शरीफ़ कहता है—“निस्संदेह कठिनाई के साथ आसानी है। वास्तव में कठिनाई के साथ आसानी है।” (सूरह अश-शरह 94:5-6)

यह आयत स्पष्ट करती है कि कठिनाई स्थायी नहीं होती। हर अंधकार के बाद सुबह आती है, और हर संकट के बाद राहत मिलती है। यही आशा का संदेश इस्लाम की आत्मा है।

 गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश

सिख परंपरा में गुरु ग्रंथ साहिब कहते हैं—“नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला।”

गुरु नानक का यह संदेश बताता है कि नाम (सत्य और स्मरण) के सहारे मनुष्य की आत्मा उन्नत होती है और वह केवल अपने लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज और विश्व की भलाई की कामना करता है। यही सामूहिक आशा का स्वर है।

 बौद्ध दृष्टिकोण

गौतम बुद्ध ने कहा—“अप्प दीपो भव” अर्थात्—“स्वयं दीपक बनो।”

बुद्ध का यह उपदेश हमें सिखाता है कि आशा बाहर से नहीं आती, वह भीतर से उत्पन्न होती है। जब हम स्वयं प्रकाशमान होते हैं, तो अंधकार अपने आप मिट जाता है।

सार्वभौमिक सत्य

हर धर्म, हर शास्त्र और हर युग यही कहता है—निराशा कभी अंतिम नहीं होती। अंधकार जितना भी प्रबल हो, प्रकाश की एक किरण उसे भेद सकती है। समाज और राष्ट्र की दिशा निराशावाद से नहीं, बल्कि विश्वास, करुणा और कर्म से बदलती है।

निराशा के दस स्वर उठें तो भी आशा के बीस गीत गूँजेंगे। यही सनातन नियम है, यही मानवता का धर्म है और यही जीवन का शाश्वत संदेश है।