लोकतंत्र की लुढ़कती गेंद और सत्ता का खेल।

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला

लोकतंत्र की लुढ़कती गेंद और सत्ता का खेल

आदिगुरु शंकराचार्य ने विवेकचूड़ामणि में कहा है—

"सीढ़ी पर गेंद हाथ से छूट जाए तो वह ऊपर नहीं लौटती, बल्कि नीचे ही लुढ़कती जाती है।"

आज भारत का लोकतंत्र इसी लुढ़कती गेंद का जीवंत रूपक बन चुका है।

 संविधान और संस्थाओं की गेंद क्यों छूटी?

यह गेंद धोखे से हाथ से नहीं छूटी।

इसे जानबूझकर छोड़ा गया, क्योंकि कुछ लोगों का राजनीतिक वजूद इसी में सुरक्षित है।

 चुनाव आयोग की निष्पक्षता लगातार प्रश्नों के घेरे में है। जिस आयोग का काम जनता का विश्वास बचाना था, वह सत्ता की रणनीतियों का औज़ार बनता दिख रहा है।

 ईडी और सीबीआई का चरित्र "सत्ता के शिकारी कुत्ते" जैसा हो गया है। विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई तेज़ और त्वरित होती है, लेकिन सत्ताधारी खेमे पर जांच का पहिया कभी नहीं घूमता।

पुलिस और प्रशासन जनता की सुरक्षा के बजाय राजनीतिक आकाओं की सुरक्षा में झुक गए हैं।

न्यायपालिका—जिससे अंतिम उम्मीद बंधी रहती है—वह भी सत्ता के दबाव और लॉबी की खींचतान में उलझती दिख रही है। हालिया मामलों में जिस तरह जजों की नियुक्ति, ट्रांसफर और फैसलों पर सवाल उठे हैं, वह लोकतंत्र के भविष्य के लिए भयावह संकेत है।

सत्ता का खेल : गेंद को फुटबॉल बनाना

यह केवल लापरवाही नहीं है। यह सुनियोजित रणनीति है। संविधान, लोकतंत्र और नैतिकता की गेंद को फुटबॉल की तरह लतियाया जा रहा है। क्योंकि यदि ये संस्थाएँ संविधानसम्मत ढंग से चलने लगें, तो कई नेताओं और दलों का अस्तित्व ही मिट जाएगा।

परिणाम : हर दिन गहराता पतन

गुरुग्राम से लेकर मुंबई और पटना तक की महानगरपालिका—जहाँ स्मार्ट सिटी के नाम पर अरबों खर्च हुए—सिर्फ दो दिन की बारिश में डूब जाती हैं।

उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब में बाढ़ और भूस्खलन का कहर जारी है, पर दोष "जलवायु परिवर्तन" पर मढ़कर सरकार अपनी जवाबदेही से बच निकलती है।

 संसद में विपक्ष की आवाज़ दबाई जाती है, माइक्रोफोन म्यूट किए जाते हैं, और जनप्रतिनिधि अपनी ही संसद में पराए बना दिए जाते हैं।

यह लोकतंत्र का अधोपतन नहीं तो और क्या है?

✍️ "क्या अब भी जनता सोती रहेगी?"

भारत के नागरिक अब भी तमाशबीन बने हैं। वे मान बैठे हैं कि "यही राजनीति है"। लेकिन भूल न करें—सीढ़ी से गिरी गेंद अपने आप ऊपर नहीं आती।

किसी को साहस करना होगा, उसे उठाना होगा।

✍️ आख़िरी चेतावनी

यदि अब भी जनता नहीं जागी, बुद्धिजीवी वर्ग चुप रहा, युवा शक्ति निरुत्तर रही, तो लोकतंत्र की यह गेंद अंधकार की गर्त में विलीन हो जाएगी।

और तब इतिहास लिखेगा✍️— "भारत के नागरिकों ने अपने ही लोकतंत्र को मरते देखा, और चुपचाप ताली बजाई।"