क्या मोदी सरकार ने ट्रम्प को पटाने के लिए अमेरिका में ‘दो दलाल’ हायर किए?

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

क्या मोदी सरकार ने ट्रम्प को पटाने के लिए अमेरिका में ‘दो दलाल’ हायर किए?

आज का सबसे बड़ा सवाल यही है—

👉 क्या भारत विश्वगुरु बनने चला है, या फिर अमेरिकी लॉबिस्टों का एक और क्लाइंट स्टेट बनता जा रहा है?

“रवानी में जो पैसा बहता है, वह कूटनीति नहीं—संदेश है: हमारी बात सुनो।”

यह कटु-सत्य के साथ ही शुरुआत है: जब बड़ी राजनैतिक तकरारों का हल सिर्फ़ दूतावास-सर्किट और वॉशिंगटन के लॉबीइस्ट-ऑफिसों तक सीमित रह जाता है, तब देश की विदेशनीति-प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह उठता है। हालिया खबरों के अनुसार, भारतीय दूतावास ने संयुक्त राज्य में उन फर्मों को अनुबंधित किया है जिनके प्रमुखों का ट्रम्प-परिवेश से नज़दीकी रिश्ता बताया जाता है — SHW Partners (Jason Miller) जैसा एक सालाना करार और Mercury Public Affairs जैसा अल्पकालिक अनुबंध। समाचारों के मुताबिक़ ये अनुबंध वाशिंगटन में भारत के हितों को सामने रखने के लए किए गए थे।

1) तथ्य-परत: क्या हुआ, कितना हुआ, कौन जुड़ा?

अगस्त-सितंबर 2025 की रिपोर्टिंग में दूतावास ने कम से कम दो अमेरिकी फर्में हायर कीं — एक साल के करार पर SHW Partners के जेसन मिलर (रिपोर्टेड लगभग \$1.8 मिलियन/वर्ष) और एक छोटा अनुबंध Mercury Public Affairs (कहा जाता है लगभग \$75,000/माह के रेट पर कुछ महीनों के लिए)। SHW के प्रमुख मिलर की हालिया तस्वीरें और व्हाइट हाउस की मुलाकातों ने इन्हें सुर्खियाँ दिलाईं। इन अनुबंधों की जानकारी FARA (Foreign Agents Registration Act) जमा-दस्तावेज़ और मीडिया रिपोर्टिंग में दर्ज है।

यह भी सच है कि यह अकेली भारत-वाली कहानी नहीं है: अमेरिका-वाशिंगटन में दुनिया भर की सरकारें और मिशन राहत-प्रचार, पॉलिसी-एडवाइस और लॉबिंग के लिए फर्मों को नियोजित करती हैं — 2025 के हालिया दौर में कई देशों ने इसी तरह डोर्स खोले। (उदाहरण: कई देशों ने ट्रम्प-युग के राजनीतिक समीकरण के साथ नए फर्मों को रिटेन किया।)

2) इतिहास-संदर्भ: क्या यह नई प्रथा है?

नहीं। भारत-सरकारें लंबे समय से वॉशिंगटन-आधारित लॉबिस्ट फर्मों से जुड़ी रही हैं। पिछली दशकों में भी केंद्र ने आवश्यक लक्ष्यों के लिए अमेरिकी फर्मों को अनुबंधित किया — 2000 के दशक से लेकर हाल ही तक की रिपोर्टिंग में यह नियमित रुझान दिखता है। 2008 में परोक्ष रूप से लाखों डॉलर की भुगतान प्रविष्टियाँ रिपोर्ट हुई थीं; 2019 में भी दूतावास-स्तर पर Cornerstone जैसे फर्मों का उपयोग देखा गया। यानी यह ‘मोदी-विशेष’ नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक और गैर-लोकतांत्रिक दोनों सरकारों की एक आम व्यवहारिक रणनीति है।

यह दीर्घकालिक परंपरा बताती है कि राजनयिक-व्यवहार के अंदर लॉबिंग/पब्लिक-डिप्लोमसी एक उपकरण है — पर यह उपकरण तब विवादास्पद बनता है जब वह पारदर्शिता, जवाबदेही और सार्वभौमिक रणनीति के स्थान पर शॉर्ट-टर्म पॉलिटिकल-इंटरेस्ट या ‘क्लोज-रिलेशनशिप’ की राह अपनाए।

3) उद्देश्य या ‘पटाना’ — क्या मामला सिर्फ़ चाटुकारिता है?

यहाँ पर ‘इरादा’ केंद्र है — और इरादों की व्याख्या दो ध्रुवों में होती है:

(क) व्यावहारिक वास्तविकता: वॉशिंगटन में प्रभाव-निर्माण का सबसे तेज़ तरीका ही स्थानीय राजनीतिक अड्डों/पूर्व प्रशासन-जनों से जुड़ना है। जब किसी नेता के पास प्रत्यक्ष शक्ति और अनौपचारिक प्रभाव हो — जैसे ट्रम्प-समूह के कुछ करीबी — तो उन्हें नियोजित करना ‘पैदल दूत’ की तरह तात्कालिक पहुँच देता है। विशेषकर तब, जब व्यापार-उद्योग पर भारी दंडात्मक टैरिफ़ की आशंका हो (जैसा अगस्त-2025 में हुआ), तो अर्थशास्त्र बताता है कि त्वरित, लागत-हीन प्रभाव के लिए भुगतान करना ‘रिएल-पॉलिसी’ हो सकता है। (टैक्स/नौकरियों/निर्यात-घटने के संभावित बुरे असर की बनिस्बत यह छोटा निवेश समझा जा सकता है)। Reuters/Bloomberg की रिपोर्टों ने अमेरिकी टैरिफ़ों और उनके जीडीपी-प्रभाव की चिंता उजागर की है।

(ख) नैतिक-राजनीतिक जोखिम: जब लॉबिस्ट ऐसे राजनीतिक-क्लस्टर से जुड़े हों जो ‘व्यक्तिगत वरीयता’ और अतीत के अंतरिम सम्बन्धों पर काम करते हों, तो यह ‘पटाना’ जैसा दिखता है — यानि मोटा शुल्क दे कर व्यक्तिगत स्तरीय सहयोग या प्रशंसा खरीदना। यह छवि राजनैतिक नैतिकता और सार्वजनिक-नैतिक आधार पर खटकती है क्योंकि कूटनीति का उद्देश्य दीर्घकालिक राष्ट्रीय हित और बहु-स्तरीय रणनीति होना चाहिए— न कि केवल किसी नेता की प्रोपेगैंडा-मशीन के अनुकूल किसी संदेश को ढालना। Bloomberg/India Today जैसी रिपोर्टें इस नज़दीकी-रिश्ते की वाज़िबता पर सवाल उठा रही हैं।

निष्कर्ष: व्यावहारिकता और ‘पटाने’ के बीच फर्क अक्सर महीन होता है। हर लॉब-करार को ‘भेट’ नहीं कहना चाहिए; पर जब वह सार्वजनिक हित के प्रति जोखिम उठाता है—टैक्स-कदमों का प्रत्यक्ष आर्थिक असर और नीति निर्धारण में पारदर्शिता-विहीनता—तब गंभीर प्रश्न उठते हैं।

4) कूटनीतिक प्रभाव: क्या इससे संप्रभुता खतरे में आती है?

लॉबीइंग फ़र्मों को हायर करना स्वयं में असंप्रभुता नहीं बतलाता। पर दो माँगें जायज़ हैं:

1. पारदर्शिता और जवाबदेही — जो अनुबंध FARA के अंतर्गत आते हैं, वे सार्वजनिक होते हैं; पर FARA का पालन और उसके दायरों-विवरणों की जांच अक्सर असमान होती है। DOJ और शोध मंच बताते हैं कि FARA-व्यवस्था ने पारदर्शिता दी पर प्रवर्तन ढीला रहा है। जब विदेशी सरकारें ‘रिस्पॉन्सिव-लॉबिंग’ पर पैसा ख़र्च करती हैं, संसद/लोकसभा-समक्ष खुलासा और नियामक निगरानी का होना चाहिए ताकि नीति-निर्माण ब्याज-समूहों के हाथों न चला जाए।

2. भूराजनीतिक संदेश — यदि किसी देश का दूतावास वैसा लॉबिस्ट रखता है जो प्रत्यक्ष तौर पर एक अमेरिकी नेता-परिवेश से जुड़ा है, तो वह संदेश भेजता है: “हम तुम्हारे साथ बात करने की कीमत चुकाएंगे।” यह संदेश मुक्त बाजार/सामरिक पारदर्शिता के सिद्धांत से ज़्यादा ’ट्रांज़ैक्शनल-रिलेशन’ का संकेत देता है—और प्रतिस्पर्धी शक्तियाँ (चीन-रूस) इसका लाभ उठा सकती हैं। इसीलिए शत्रुतापूर्ण राजनीति में लॉबिंग-रणनीति को सावधानी के साथ लागू करना चाहिए।

5) क्या ‘पहले’ सरकारें भी ऐसा करती रही हैं?

हाँ। इतिहास बताता है कि UPA से लेकर बीजेपी तक, विविध केन्द्रों ने आवश्यक मुद्दों पर अमेरिकी लॉबिस्ट्स को हायर किया है—न केवल इमेज-बिल्डिंग के लिए, बल्कि विशेष व्यापार, ऊर्जा और सुरक्षा मामलों में गहन पहुँच के लिए भी। 2000-2010 के दशक में भारत ने वॉशिंगटन-वित्‍तीय और कन्सल्टेंसी खर्च किए; 2019 में भी दूतावास-स्तर पर फर्मों को रिटेन किया गया। इसका अर्थ है कि यह एक स्थापित प्रैक्टिस है—पर नई चिंता यह है कि अब लॉबिस्ट्स की प्रोफ़ाइल और ठेके पर खर्च का स्तर और मालिकों की पृष्ठभूमि (पूर्व प्रशासन-कॉन्टैक्ट्स) सार्वजनिक विमर्श का विषय बन गए हैं।

6) नीतिगत विकल्प: अगर यह रणनीति चाहिए तो कैसे अधिक जिम्मेदारी से?

1. पारदर्शिता कानून और संसद की समीक्षा — विदेश मंत्रालय द्वारा किए गए ऐसे अनुबंधों की संसद में सूचना और गठित समितियों के सामने समीक्षा आवश्यक हो। FARA-फाइलिंग के साथ साथ भारत में भी सार्वजनिक विवरण होना चाहिए।

2. लॉन्ग-टर्म पब्लिक-डिप्लोमेसी — केवल ‘टैली ऑफ-ऑनररी’ संपर्क नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, आर्थिक और संस्थागत-स्तरीय निवेश—विश्वविद्यालय, think-tanks, व्यापार-गुटों के साथ दीर्घकालिक संबंध—इसका विकल्प है।

3. विविधता और रिस्क-मिटिगेशन — किसी एक पॉलिटिकल-परिवेश पर निर्भरता घटाएँ; कई पार्टनर्स, बहु-माध्यमिक रणनीति अपनाएँ।

4. डोमेस्टिक ड्राइव — विदेशी लॉबिंग से पहले घरेलू अर्थव्यवस्था और निर्यात-श्रृंखलाएँ मजबूत करना ताकि बाहरी दबावों के प्रति संवेदनशीलता कम हो। Reuters/Bloomberg की टैरिफ-रिपोर्टिंग स्पष्ट करती है कि टैरिफ़ों का आर्थिक असर त्वरित और गहरा होता है—यह ख़र्च का तार्किक आधार है पर भरोसा कम कर देना चाहिए।

# विनियोग का अंतिम मूल्यांकन — ‘पटाना’ या ‘रक्षा-रणनीति’?

साफ-साफ: लॉबिस्ट अनुबंध कोई अनैतिक कार्य नहीं है — यह कूटनीति का एक साधन है। पर जब वह केवल किसी नेता-परिवेश को लक्षित कर के महंगे और पारदर्शी-रहित तरीके से स्वीकृति हासिल करने की कोशिश करे, तब वह लोकतांत्रिक जवाबदेही के लिहाज़ से खतरनाक बन जाता है। मोदी-सरकार द्वारा की गई हालिया नियुक्तियाँ (अगर उद्देश्य शर्तों/टैरिफ़ों के खिलाफ़ देश का आर्थिक सुरक्षात्मक हित बचाना है) तो रणनीतिक-रक्षा की श्रेणी में रखी जा सकती हैं; पर यदि उद्देश्य सिर्फ़ किसी राजनीतिक चेहरे की सानीदारी जीतना हो, तो वह समाजिक-राजनीतिक जोखिम बढ़ाती हैं। तथ्य यह है कि पहले की सरकारें भी यह करती आई हैं—मगर अब संदर्भ और सावधानियाँ बदल गई हैं: ट्रम्प-युग के त्वरित निर्णय और वैश्विक टैरिफ़-शॉक ने हर कदम को अधिक संवेदनशील बना दिया है।

भारत की विदेश नीति यदि वास्तव में "वसुधैव कुटुम्बकम्" के आदर्श पर खड़ी है, तो उसे पारदर्शिता और आत्मनिर्भरता पर टिकी रहनी चाहिए। लेकिन यदि सत्ता का गणित अमेरिकी गलियारों में "दलालों" के सहारे सुलझाया जा रहा है, तो यह हमारे लोकतंत्र की गरिमा पर चोट है।

“राहत कभी रिटेन-लॉबी से आती है — मगर जो दाम आप चुकाते हैं, वह सिर्फ़ पैसे का नहीं; वह आपकी कूटनीतिक स्वायत्तता और लोकतांत्रिक जवाबदेही का मूल्य होता है।”