राजनीति की खोई हुई ज़मीन: जमीन से जुड़े नेता कहाँ हैं?

लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

राजनीति की खोई हुई ज़मीन: जमीन से जुड़े नेता कहाँ हैं?

भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जनता के नाम पर बनने वाली पार्टियाँ, जनता से सबसे पहले दूर हो जाती हैं। टिकट बंटते हैं—लेकिन यह सेवा, संघर्ष, या जन-दर्द पर आधारित नहीं, पैसे, रसूख और जातीय समीकरण पर तय होते हैं। परिणामस्वरूप वही नेतागण लौटते हैं जिनकी ज़िंदगी कभी भी साधारण जनता जैसी नहीं रही, और जिनमें जनता की पीड़ा को समझने की क्षमता होती ही नहीं।

# तथ्य पटल पर: आंकड़े बोलते हैं

अध्यक्षों के बीच crorepatis की बढ़ती संख्या

  2024 के लोकसभा चुनावों में 93% विजेता उम्मीदवार करोड़पति थे, जो 2019 की तुलना में (88%) बढ़त है।

  लगभग 42% उम्मीदवारों के पास 10 करोड़ रुपये से अधिक संपत्ति थी, 32% के पास 1-5 करोड़, और सिर्फ 1% के पास 20 लाख से कम।

 सत्ता में अपराधियों का बढ़ता प्रभाव

  नई लोकसभा के 46% सांसदों पर आपराधिक मामलें दर्ज हैं, जिनमें 31% पर गंभीर आरोप जैसे हत्या, बलात्कार, अपहरण आदि शामिल हैं।

  यह प्रवृत्ति 2009 से 55% अधिक हो चुकी है, जबकि गंभीर मामलों में 124% की वृद्धि हुई है।

 महिला प्रतिनिधित्व पर झंझट

  28% महिला सांसदों/विधायकों पर आपराधिक मामलें दर्ज हैं, और 15% पर गंभीर आरोप (जैसे हत्या, हत्या का प्रयास) हैं।

 क्रिमिनल नेता और आर्थिक विकास

  अर्थशास्त्रीय शोध से पता चला है कि अपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के चुने जाने पर संबंधित क्षेत्र में वार्षिक आर्थिक गतिविधि में 22 प्रतिशत अंक तक कमी आती है—यह रात्रि-प्रकाश (nighttime lights) जैसे प्रत्यक्ष संकेतों से मापा गया है।

 लोकसभा सांसदों का संपत्ति वितरण

  लोकसभा और राज्यसभा के 763 सांसदों का औसत संपत्ति लगभग ₹38.3 करोड़ है। अपराध के आरोपित सांसदों की औसत संपत्ति ₹50 करोड़ से अधिक, जबकि निर्दोष सांसदों की औसत संपत्ति ₹30.5 करोड़।

 स्थानीय विकास के लिए मिले फंड की बेकार खपत

  गुजरात के सांसदों ने MPLADS के तहत दिए गए ₹254.8 करोड़ में से सिर्फ 4.2% ही खर्च किए—बशर्ते विकास के लिए, जबकि अधिकांश फंड न उपयोग हुआ, न पारदर्शिता रही।

# जब सामान्य व्यक्ति बने नेता—राजनीति में ज़मीन से जुड़ाव

इतिहास बताता है कि जब साधारण लोग नेतृत्व में आए हैं, तब समाज में नई ऊर्जा, बदलाव और संघर्ष आते रहे—मज़दूर आंदोलन, किसान आंदोलन, Grassroots politics—उनका नेतृत्व जनता की ज़मीन से जुड़ा होता है।

अगर विपक्ष ऐसे चेहरे — जो राशन की लाइन में खड़े नदी, अस्पताल की लाइन में पसीना बहा चुके हों— को टिकट दे, तो वे संसद में आँखें खोल देने वाले अनुभव और गुस्सा लेकर आएँगे, न कि सिर्फ आंकड़े और सूखे भाषण।

# क्या विपक्ष में अब भी जनता की ज़मीन पर लौटने की हिम्मत है?

क्या राजनीतिक दल इतने साहसी होंगे कि पैसे, रसूख और जाति के पीछे धकेल कर एक साधारण इंसान को टिकट देंगे?

अगर वे ऐसा कर पाएँ, तो जनता उन्हें अपनाएगी—और यह सिर्फ राजनीतिक जीत का रास्ता नहीं, लोकतंत्र की खोई हुई जमीन पर लौटने की शुरुआत होगी।