हिंदी मीडिया के संवाद सूत्र और पत्रकार — असुरक्षा की खामोश पीड़ा

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


हिंदी मीडिया के संवाद सूत्र और पत्रकार — असुरक्षा की खामोश पीड़ा

भारतीय मीडिया की ताकत उसके संवाद सूत्र और क्षेत्रीय पत्रकार हैं। यही वे लोग हैं जो गाँव–कस्बों की खबरों को अखबार और चैनलों तक पहुँचाते हैं। पर आज उनकी सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दुर्दशा लोकतंत्र के लिए गंभीर चेतावनी है।

1. हिंदी पत्रकारिता में असुरक्षा

हिंदी अखबारों के पत्रकार, खासकर जो अपनी उम्र के 45 साल पार कर चुके हैं, अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर जैसे अखबार इतने तो वेतन देते हैं कि पत्रकार “जी सकते” हैं, लेकिन चैन से नहीं।

 रिटायरमेंट के समय पेंशन की व्यवस्था नहीं है।

अधिकांश रिटायर्ड पत्रकारों को कंसल्टेंट या किसी अन्य आर्थिक सुरक्षा का विकल्प नहीं दिया जाता।

मुरादाबाद की एक यूनिट में वरिष्ठ सब एडिटर रिटायर होने के बाद झुग्गी झोपड़ी में रहने को मजबूर हुए। केवल किताबें, कुछ बरतन और उनकी कलम बची।

 समाज का रवैया भी उपेक्षात्मक है; पत्रकारिता में जीवन समर्पित करने वाले आज भी अकेले हैं।

नतीजा: आर्थिक असुरक्षा और सामाजिक उपेक्षा पत्रकारों को अपनी सेकंड इनिंग के लिए रणनीति बनाने को मजबूर करती है।

2. संवाद सूत्रों की दुर्दशा

संवाद सूत्र (Stringers/Contributors) मीडिया की रीढ़ हैं। पर आज:

 भुगतान असमान और विलंबित।

बीमा, पेंशन या स्थायी सुरक्षा का अभाव।

अक्सर उनका श्रेय स्थायी पत्रकारों को चला जाता है।

 ग्रामीण और छोटे कस्बों की खबरें अनदेखी हो रही हैं, लोकतंत्र की सूचना चैन कमजोर हो रही है।

मनोवैज्ञानिक असर: असुरक्षा, उपेक्षा और पहचान की कमी से हताशा, अवसाद और आत्म-मूल्य ह्रास।

3. सेकंड इनिंग के विकल्प

45+ उम्र वाले पत्रकारों के लिए यह जरूरी है कि वे अपनी आर्थिक और पेशेवर सुरक्षा के विकल्प तलाशें। विशेषज्ञ सुझावों के अनुसार पांच रास्ते हैं:

1. प्रॉपर्टी और रियल एस्टेट कंसल्टिंग

    स्थानीय नेटवर्क का उपयोग करके रियल एस्टेट डीलिंग/ब्रोकरेज करना।

    कम निवेश, पर हर डील पर मोटा कमीशन।

2. सरकारी/कॉर्पोरेट टेंडर और पीआर कंसल्टेंसी

    अफ़सरशाही और सिस्टम की समझ का फायदा उठाकर कंपनियों और दफ्तरों के बीच सेतु बनना।

3. राजनीतिक कंसल्टेंसी और चुनावी काम

    भाषण लेखन, मीडिया मैनेजमेंट, सोशल मीडिया कैंपेन।

    हर चुनाव में सलाहकार की फीस लाखों–करोड़ों तक।

4. लोकल बिजनेस में पार्टनरशिप

   मेडिकल स्टोर, हॉस्पिटल, जिम, ट्रांसपोर्ट आदि में निवेश।

    रिस्क कम और स्थिर आय।

5. कृषि और नई खेती

    ऑर्गेनिक फार्मिंग, डेयरी, बागवानी।

    नेटवर्क और मार्केटिंग के जरिए प्रत्यक्ष बिक्री।

याद रखें, कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। जरूरी है—सुरक्षित गुजर-बसर और आत्म-सम्मान।


हिंदी पत्रकारिता और संवाद सूत्रों की दुर्दशा केवल व्यक्तिगत संकट नहीं है; यह लोकतंत्र की सूचना संरचना और समाज की संवेदनशीलता पर चोट है। अगर संवाद सूत्र और पत्रकार आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा से वंचित रहें, तो ग्रामीण और छोटे कस्बों की आवाज़ दब जाएगी।

"सवाल यह है—क्या मीडिया संस्थान, नीति निर्माता और समाज इस अदृश्य श्रम को मान्यता देंगे, या संवाद सूत्र और पत्रकार आने वाले कल में “लोकतंत्र के अनसुने शहीद” बन जाएँगे?"