वोट चोरी और भारतीय राजनीति का सच

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


वोट चोरी और भारतीय राजनीति का सच

वोट चोरी का मुद्दा आज भारतीय लोकतंत्र की संवेदनशीलता को सीधे चुनौती दे रहा है। संघ और भाजपा, जो लंबे समय से इस विषय पर बचाव की मुद्रा में हैं, अब बैकफुट पर दिख रहे हैं। गोदी मीडिया की हर कोशिश के बावजूद जनता धीरे-धीरे इस सच को समझ रही है और मान भी रही है। लेकिन बड़ा सवाल यही है—इसके बाद क्या होगा?

वास्तविक चुनौती विपक्ष के सामने है। कांग्रेस सहित सारे बड़े विपक्षी दल संघ-भाजपा की कोर आइडियोलॉजी पर हमला करने से डरते हैं। मुसलमानों, दलितों और पिछड़ों पर जारी उत्पीड़न या उनके वोट अधिकार के हनन पर कोई स्पष्ट स्टैंड लेने को तैयार नहीं हैं। इसका कारण स्पष्ट है—अगर कोई दल संघ-भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति पर चोट करता है, तो उसे “हिंदू विरोधी” बताया जाएगा और उसका हिंदू वोट बेस खिसक सकता है।

इस डर के कारण, भारतीय राजनीति अब ऐसे मोड़ पर है जहाँ वास्तविक मुद्दों—शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और सुरक्षा—की सियासत करना असंभव सा लगता है। विपक्ष की कमजोरी को संघ-भाजपा अच्छी तरह भांप चुके हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बिहार में अकेले 65 लाख लोगों को वोटिंग लिस्ट से बाहर कर दिया गया, जिनमें मुसलमानों, दलितों और पिछड़ों की बड़ी तादाद शामिल है—यानी वे लोग जो आमतौर पर भाजपा को वोट नहीं देते।

तो सवाल वही है—“वोट चोरी” के खिलाफ लड़ाई का नतीजा क्या निकला?

मेरी राय में, मौजूदा राजनीतिक ठहराव से निकलने का एकमात्र रास्ता आर्थिक और सामाजिक निज़ाम में आमूलचूल बदलाव है। उत्पादन और उपभोग के ढांचे को बदलने की लड़ाई ही वास्तविक परिवर्तन ला सकती है। इस प्रक्रिया में संघ की आइडियोलॉजी से टकराव भी अनिवार्य होगा।

दुर्भाग्य से, मौजूदा सियासी दलों में ऐसा कोई नेतृत्व नजर नहीं आता, जो इस लड़ाई को आगे बढ़ा सके। परिणामस्वरूप, वोट चोरी का मुद्दा लोकतंत्र की गहरी समस्या बनकर रह गया है, और नागरिकों की वास्तविक आवाज़ दबती रहती है।