"गलत अनुवाद का खेल और चीन पर परदा"

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

गलत अनुवाद का खेल और चीन पर परदा"

लोकतंत्र में सबसे अहम चीज़ है — सही सूचना। अगर सूचना ही गलत दी जाए, उसका अनुवाद तोड़-मरोड़ कर किया जाए, और फिर उसी आधार पर एफआईआर दर्ज कर दी जाए, तो यह सिर्फ किसी नेता या व्यक्ति पर हमला नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श की जड़ों पर चोट है। तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा का मामला इसी की मिसाल है।

छत्तीसगढ़ पुलिस ने अमित शाह पर "आपत्तिजनक" टिप्पणी के आरोप में एफआईआर दर्ज की। हिन्दी अख़बारों में इस खबर को सनसनीखेज़ ढंग से पेश किया गया, मानो सांसद ने सचमुच सिर काटने की धमकी दी हो। जबकि वास्तविकता यह है कि बांग्ला का मुहावरा “माथा केटे टेबिले राखा” (মাথা কেটে টেবিলে রাখা) का अनुवाद हत्या या हिंसा नहीं, बल्कि जवाबदेही तय करने के संदर्भ में होता है। महुआ मोइत्रा ने खुद वीडियो जारी कर यह साफ़ किया, लेकिन अख़बारों और चैनलों के लिए असल मुद्दा यह नहीं रहा कि गलत अनुवाद के आधार पर एफआईआर दर्ज हुई, बल्कि यह कि "आपत्तिजनक बयान" दिया गया।

यह घटना कोई अपवाद नहीं। पहले एक प्रोफ़ेसर गलत अनुवाद का शिकार बने, अब सांसद। यह पैटर्न साफ़ दिखाता है कि पुलिस और प्रशासन का इस्तेमाल विपक्ष को फंसाने के औज़ार के रूप में हो रहा है। अदालतों का समय और जनता के संसाधन गलत मुकदमों में बर्बाद हो रहे हैं। असल में, खबर यह थी कि “गलत अनुवाद पर एफआईआर” – लेकिन मीडिया ने इसे भी सत्ता के पक्ष में पलट दिया।

इसी बीच, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा को लेकर मीडिया का रवैया एकदम उलट रहा। मोदी सात साल बाद चीन पहुँचे। डोकलाम, गलवान और बीस शहीदों की यादें अभी पुरानी नहीं हुईं। लेकिन देश के ज़्यादातर अख़बारों ने उनकी यात्रा को “दोस्ती”, “मानवता का कल्याण”, “वैश्विक स्थिरता” और “ड्रैगन-टाइगर टैंगो” जैसे शीर्षकों में लपेट दिया। टेलीग्राफ का व्यंग्यपूर्ण पर सारगर्भित शीर्षक ‘दास कैपिटल’ इस संदर्भ में सबसे सटीक रहा।

याद दिलाना होगा कि इन्हीं प्रधानमंत्री ने कभी चीन को “लाल आंखें” दिखाने की बात कही थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद उनकी रणनीति ने न “लाल आंखें” दिखाईं, न गलवान की शहादत पर दृढ़ता से बात की। बल्कि अब वही सरकार “भारत-चीन साझेदारी” को भविष्य का विकल्प बता रही है। विपक्षी नेताओं ने चेतावनी दी है कि इससे चीन पर निर्भरता बढ़ेगी और भारतीय उद्योगों का नुक़सान होगा। लेकिन मुख्यधारा मीडिया में इन आशंकाओं को हाशिये पर धकेल दिया गया।

यह दोहरा रवैया लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। विपक्ष की आवाज़ को गलत अनुवाद से अपराध बना देना और चीन जैसी जटिल चुनौती पर जनता से सच छिपा लेना – यही आज की पत्रकारिता की सबसे बड़ी बीमारी है।

अगर मीडिया सच बोलने से डर गया, अगर वह सत्ता का प्रवक्ता बन गया, तो लोकतंत्र की रक्षा कौन करेगा? अदालतें तभी सक्रिय होंगी जब मुद्दा वहाँ पहुँचेगा। विपक्ष की आवाज़ तभी असर डालेगी जब जनता उसे सुनेगी। और जनता तभी सुनेगी जब पत्रकारिता सत्ता से सवाल पूछेगी, न कि उसके लिए गाने गाएगी।

इसलिए आज सबसे बड़ा सवाल यह है – "क्या हमारे अख़बार और चैनल लोकतंत्र के प्रहरी हैं, या सत्ता के लिए ढाल बन चुके हैं?"

अंततः लोकतंत्र की रक्षा सिर्फ़ न्यायपालिका या विपक्ष नहीं करता— "पत्रकारिता की सच्चाई ही लोकतंत्र का पहला कवच है।"