"वोट का अधिकार और लोकतंत्र की परीक्षा"
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
वोट का अधिकार और लोकतंत्र की परीक्षा"बिहार से शुरू हुई वोटर अधिकार यात्रा का पटना में समापन भले ही 1 सितंबर को हो गया हो, लेकिन जिस ऊर्जा और स्वर के साथ यह समाप्त हुई, उसने साफ़ कर दिया है कि यह केवल एक यात्रा नहीं थी—बल्कि देशभर में लोकतंत्र के सबसे बड़े आधार स्तम्भ मताधिकार की रक्षा की एक नई मुहिम का आग़ाज़ है।
पटना की भीड़, विपक्षी नेताओं का एक मंच पर जुटना और मतदाता सूची में गड़बड़ी के गंभीर आरोप, सब मिलकर यह संकेत दे रहे हैं कि चुनावी राजनीति अब केवल सत्ता परिवर्तन का खेल नहीं रह गई है, बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।
राहुल गांधी द्वारा "हाइड्रोजन बम" वाले बयान ने निश्चय ही राजनीतिक तापमान बढ़ाया है। कर्नाटक, गुजरात और बिहार से लेकर महाराष्ट्र व हरियाणा तक—जहां-जहां मतदाता सूचियों में हेरफेर के आरोप लगे हैं, वहां की तस्वीरें यह साबित करती हैं कि यह मुद्दा सीमित नहीं, बल्कि राष्ट्रव्यापी चुनौती है। जब कांग्रेस अध्यक्ष अमित चावड़ा गुजरात में 30 हज़ार फर्जी मतदाताओं की बात करते हैं, या जब बिहार में लाखों नाम अचानक गायब दिखाए जाते हैं, तब सवाल सीधा चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठता है।
यात्रा के समापन मंच पर विपक्ष का व्यापक जमावड़ा—राहुल गांधी, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन, संजय राउत, जितेंद्र आव्हाड़, युसूफ पठान, एम.ए. बेबी, डी. राजा, एनी राजा और अन्य नेताओं का एक साथ खड़ा होना—भविष्य की राजनीति का संकेतक है। "वोट चोरी" का मुद्दा विपक्ष को एकजुट कर रहा है। यहाँ तक कि जो दल इस यात्रा में औपचारिक रूप से शामिल नहीं हुए, वे भी समय-समय पर मतदाता सूची में गड़बड़ी की शिकायतें दर्ज कराते रहे हैं।
भाजपा इसे हल्के में लेने की भूल नहीं कर सकती। पटना में जनसैलाब, बिजली काटने और रुकावट डालने जैसी कोशिशों के बावजूद उमड़ी भीड़ ने यह बता दिया कि जनता अब केवल तमाशबीन नहीं, बल्कि सक्रिय भागीदार बन रही है। भाजपा नेताओं की जल्दबाज़ी में की गई प्रतिक्रियाएँ, जैसे रविशंकर प्रसाद की प्रेस कॉन्फ्रेंस, इस चिंता को और स्पष्ट करती हैं।
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर है। कांग्रेस द्वारा दी गई 89 लाख शिकायतें, पत्रकार श्रीनिवासन रमानी की रिपोर्ट में सामने आए आंकड़े—65 लाख वोटों का कटना, हजारों इलाकों में नामों का "मृत" घोषित होना, लिंगभेद व उम्र आधारित विसंगतियाँ—ये सब केवल तकनीकी त्रुटियाँ नहीं मानी जा सकतीं। यह गंभीर लोकतांत्रिक संकट की ओर इशारा है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति परकला प्रभाकर का आयोग से सवाल करना, और विपक्षी दलों के साथ-साथ बुद्धिजीवियों का भी आवाज़ उठाना दिखाता है कि यह बहस किसी पार्टी की सुविधा का प्रश्न नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र के अस्तित्व का सवाल है।
यह सच है कि चुनाव आयोग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की रीढ़ है। यदि उसकी विश्वसनीयता पर ही आंच आएगी, तो चुनावी प्रक्रिया पर जनता का भरोसा डगमगाना तय है। विपक्ष के संगठित आक्रोश और जनता की स्वतःस्फूर्त भागीदारी अब यह संदेश दे रही है कि “वोट का अधिकार अब सिर्फ एक अधिकार नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रक्षा का अस्त्र है।”
आज भाजपा को केवल विपक्षी आरोपों का जवाब नहीं देना है, बल्कि उस जनता की आशंकाओं का भी सामना करना है, जो हर बार लाइन में लगकर लोकतंत्र को जीवित करती है। चुनाव आयोग को भी यह समझना होगा कि पारदर्शिता और जवाबदेही से ही वह अपनी साख बचा सकता है।
क्योंकि अंततः सवाल यही है—
"यदि मतदाता सूची ही निष्पक्ष नहीं रही, तो लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश किस अधिकार से होगा?"