“आम आदमी: शोषण की नींव पर टिका लोकतंत्र”

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला


“आम आदमी: शोषण की नींव पर टिका लोकतंत्र”

भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि जिसे “जनता की सत्ता” कहा जाता है, वहीं जनता यानी आम आदमी सबसे असहाय और उपेक्षित है। बहुसंख्यक होते हुए भी उसकी गिनती केवल संख्या के रूप में की जाती है। वह वोटर है, भीड़ है, मज़दूर है, उपभोक्ता है—पर इंसान के रूप में, उसकी गरिमा और अधिकारों के संदर्भ में, उसकी कोई जगह नहीं।

# सत्ता की भूख और आम आदमी का उपयोग

सत्ता का खेल कुछ परिवारों और वर्गों के इर्द-गिर्द सिमट चुका है। नीतियाँ उनकी ज़रूरतों के अनुसार गढ़ी जाती हैं, कानून उनके फायदे के लिए तोड़े-मरोड़े जाते हैं, और पूरी सरकारी मशीनरी उनके आदेशों पर चलती है। आम आदमी? उसका काम है सिर्फ़ भीड़ जुटाना, वोट देना, और हर चुनाव में नए सपनों के झाँसे में आ जाना।

“आम आदमी की गिनती से सरकारें बनती हैं, और उसकी चेतना से राजसिंहासन टूटते हैं।”

# अर्थव्यवस्था के नाम पर छलावा

भारत की अर्थव्यवस्था का असली बोझ आम आदमी के कंधों पर है। वही खेतों में खून-पसीना बहाता है, वही फैक्ट्रियों में मशीनों की आवाज़ के बीच घुल जाता है, वही शहरों की गंदगी साफ़ करता है और वही सस्ते श्रम से कॉर्पोरेट साम्राज्य की नींव मजबूत करता है। लेकिन जब समृद्धि का बँटवारा होता है, तो उसके हिस्से सिर्फ़ महँगाई, बेरोज़गारी और कर्ज़ की जंजीरें आती हैं।

“आम आदमी चुप है, लेकिन उसकी खामोशी सबसे बड़ा तूफ़ान है।”

# समाज को बाँटने की साज़िश

जाति, धर्म और क्षेत्रीय पहचानें आम आदमी की बेड़ियाँ बना दी गई हैं। इन्हीं विभाजनों के दम पर राजनीति फलती-फूलती है। शासक वर्ग जानता है कि अगर आम आदमी अपनी असली ताक़त को समझ ले और एकजुट हो जाए, तो उसकी सत्ता की नींव हिल जाएगी। इसलिए हर चुनाव से पहले नए-नए मुद्दों और झूठी पहचानों का खेल रचा जाता है।

“जिसे सबसे कम आँका गया, वही सबसे बड़ी ताक़त है।”

# मीडिया का मुखौटा

जहाँ मीडिया को आम आदमी की आवाज़ होना चाहिए था, वहाँ वह सत्ता और कॉर्पोरेट का *प्रचार विभाग* बन गया है। आम आदमी की भूख, पीड़ा और ग़ुस्सा कैमरों से ओझल रहता है। उसकी जगह परोस दिए जाते हैं सेलिब्रिटी की शादी, मंत्रियों की प्रेस कॉन्फ्रेंस और नेताओं के झूठे वादे।

“आम आदमी का उठना ही असली क्रांति है।”

 विद्रोह की संभावना

इतिहास गवाह है कि जब आम आदमी की पीड़ा उसकी सहनशक्ति से बड़ी हो जाती है, तो वही मौन भीड़ सबसे बड़ा तूफ़ान बन जाती है। आज जो वर्ग उसे सिर्फ़ साधन समझकर उपयोग कर रहा है, वही कल उसकी चेतना जागने पर सबसे पहले सत्ता से बाहर फेंका जाएगा। आम आदमी की खामोशी स्थायी नहीं है; यह आने वाले तूफ़ान की आहट है।

“जिसे सत्ता ने साधन बना दिया, वही कल परिवर्तन का साधक बनेगा।”

आज का सच यही है कि आम आदमी लोकतंत्र में सबसे बड़ा शोषित वर्ग है। उसे सिर्फ़ वोट, सस्ती मज़दूरी और भीड़ की भूमिका दी गई है। उसकी असली अहमियत दबा दी गई है ताकि कुछ परिवारों और कॉर्पोरेट घरानों की सत्ता अटूट बनी रहे।

लेकिन इस कड़वे सच से बड़ी आशा यह है कि आम आदमी ही इस व्यवस्था का असली मालिक है। जैसे ही वह अपनी सामूहिक चेतना को जागृत करेगा, जाति-धर्म की बेड़ियों को तोड़ेगा और अपने अधिकारों को पहचान लेगा, उसी दिन यह छलावा टूटेगा।

आम आदमी सिर्फ़ गिनती नहीं है। वह अगर उठ खड़ा हो तो सत्ता की बुनियाद हिल जाएगी। यही डर हर शासक के मन में छिपा रहता है—और यही आम आदमी की असली ताक़त है।

“आम आदमी सिर्फ़ गिनती नहीं—अगर उठे तो सत्ता की बुनियाद हिला दे।”