जीएसटी सुधार: लोकतंत्र, पारदर्शिता और राजनीतिक ब्रांडिंग का सवाल
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
जीएसटी सुधार: लोकतंत्र, पारदर्शिता और राजनीतिक ब्रांडिंग का सवाल
भारत में हाल ही में घोषित जीएसटी दरों में कटौती को लेकर जिस तरह की राजनीतिक रंगत चढ़ाई गई है, वह आर्थिक नीति और चुनावी रणनीति के बीच की महीन रेखा को धुंधला कर देती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस फैसले को न केवल राष्ट्र के नाम संदेश में प्रस्तुत किया, बल्कि इसके प्रचार के लिए अखबारों में विज्ञापनों और सोशल मीडिया पोस्टों की झड़ी लगा दी। उद्योग जगत से “धन्यवाद” विज्ञापन की श्रृंखला ने इस बहस को और गहरा कर दिया है कि क्या यह सुधार जनहित में है, या चुनावी गणित का हिस्सा।
1. नीति या प्रचार?
जीएसटी दरों पर निर्णय संवैधानिक संस्था — जीएसटी काउंसिल लेती है, जिसमें केंद्र और सभी राज्य शामिल हैं। इसके बावजूद यह संदेश दिया गया मानो यह फैसला सीधे प्रधानमंत्री की पहल का नतीजा हो। सवाल यह है कि—
यदि यह केवल कर-सुधार था तो इसे साधारण प्रशासनिक निर्णय की तरह लागू किया जा सकता था।
फिर इसे विशेष घोषणा, राष्ट्र के नाम संबोधन और अखबारों में फ्रंट-पेज विज्ञापनों की तरह क्यों प्रस्तुत किया गया?
यह स्पष्ट संकेत है कि आर्थिक नीति को एक राजनीतिक ब्रांडिंग उपकरण की तरह प्रयोग किया गया।
2. धन्यवाद विज्ञापनों का प्रश्न
कंपनियों और उद्योग संगठनों द्वारा प्रधानमंत्री को सार्वजनिक विज्ञापनों के जरिये धन्यवाद कहना लोकतांत्रिक दृष्टि से असहज स्थिति है।
यदि दरों में कटौती से उन्हें राहत मिली है, तो उसका स्वागत व्यावसायिक मंचों या प्रेस बयान के जरिए किया जा सकता था।
लेकिन धन्यवाद विज्ञापन यह संदेश देते हैं कि नीति-निर्माण और राजनीतिक समर्थन के बीच कोई अदृश्य संबंध मौजूद है।
अंतर्राष्ट्रीय लोकतांत्रिक परंपराओं में, नीति से हुए लाभ का जश्न मनाना सामान्य है, परन्तु सीधे राजनीतिक नेतृत्व को विज्ञापन देकर आभार प्रकट करना संस्थागत संतुलन पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
3. दिल्ली शराब नीति बनाम जीएसटी सुधार
दिल्ली सरकार की आबकारी नीति में कंपनियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे तो सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियाँ सक्रिय हो गईं।
लेकिन केंद्र की नीतियों से जब कंपनियों को लाभ होता है, तब न जांच होती है, न ही स्वत: संज्ञान लिया जाता है।
यह दोहरा मानदंड लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करता है।
अगर दिल्ली में नीति परिवर्तन आपराधिक माना गया, तो जीएसटी में हुए बदलावों और उससे कंपनियों को मिले लाभ की भी स्वतंत्र जांच होनी चाहिए। अन्यथा लोकतंत्र में समान जवाबदेही का सिद्धांत खोखला हो जाएगा।
4. मीडिया और संपादकीय स्वतंत्रता
इस प्रकरण ने मीडिया की स्थिति को भी उजागर किया है।
कई बड़े अखबारों ने इस खबर को पहले पन्ने की लीड बनाया।
कुछ अखबारों ने इसे सामान्य समाचार की तरह अंदर प्रकाशित किया।
विज्ञापनों की बाढ़ ने यह स्पष्ट कर दिया कि संपादकीय स्वतंत्रता किस हद तक सरकारी दबाव में है।
लोकतंत्र में मीडिया का काम सत्ता की जवाबदेही तय करना है, न कि प्रचार का हिस्सा बन जाना।
5. वैश्विक संदर्भ
भारत ऐसे समय में है जब:
अमेरिका के साथ व्यापार और टैरिफ तनाव मौजूद है,
चीन के साथ आर्थिक प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है,
और वैश्विक निवेशकों की निगाह भारत की नीतिगत स्थिरता पर है।
इस पृष्ठभूमि में जीएसटी सुधार का अत्यधिक राजनीतिक प्रचार यह संकेत देता है कि भारत की आर्थिक नीतियाँ दीर्घकालिक दृष्टिकोण से अधिक चुनावी लाभ पर केंद्रित हैं। यह संदेश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की नीति-निर्माण प्रक्रिया की विश्वसनीयता को प्रभावित करता है।
6. निष्कर्ष: लोकतंत्र की कसौटी
असल सवाल यह नहीं है कि जीएसटी दरें कम हुईं या नहीं। असल सवाल यह है कि—
क्या नीति निर्माण पारदर्शी और निष्पक्ष है?
क्या सभी नीतियों पर समान जवाबदेही लागू होती है?
क्या सरकारें जनहित के फैसलों को राजनीतिक प्रचार का साधन बना रही हैं?
लोकतंत्र तभी सशक्त होता है जब नीति और प्रचार की रेखा साफ हो, और जब केंद्र हो या राज्य—सभी पर जवाबदेही और जांच के एक जैसे मानदंड लागू हों।
यदि ऐसा नहीं होता, तो जनता केवल दर्शक बनकर रह जाएगी और लोकतंत्र महज़ चुनावी प्रबंधन का खेल बन जाएगा।