भारत में राज्यनीति और न्यायपालिका: दोहरी दृष्टि की ऐतिहासिक समीक्षा

 

भारत में राज्यनीति और न्यायपालिका: दोहरी दृष्टि की ऐतिहासिक समीक्षा

नई दिल्ली – स्वतंत्र भारत के 75 वर्षों में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका ने कई मामलों में दोहरी दृष्टि अपनाई है। यह प्रवृत्ति न केवल ऐतिहासिक घटनाओं में दिखती है, बल्कि वर्तमान समय में भी सामने आती है, जिससे धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संवेदनशीलताओं पर प्रश्न उठते हैं।

# गांधीजी की नीति और धार्मिक पक्षपात

स्वतंत्र भारत के “राष्ट्रपिता” महात्मा गांधी ने अपने सार्वजनिक जीवन में हिन्दुओं और मुस्लिमों के प्रति अलग दृष्टिकोण अपनाया।

हिन्दू क्रांतिकारियों और वीरों के प्रति गांधीजी अक्सर सख्त और आलोचनात्मक थे, जबकि जिहादी या मुस्लिम अपराधियों के प्रति सहानुभूति और संरक्षण दिखाया।

 उदाहरण: 1921 के मोपला विद्रोह में हिन्दुओं पर हुए सामूहिक हत्याकांड और बलात्कार के बावजूद गांधीजी ने मुसलमानों का संरक्षण किया और कांग्रेस को उनकी निंदा करने से रोका।

* गांधीजी ने हिंदू क्रांतिकारियों जैसे चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह को “भाई” या समान दृष्टि से नहीं देखा, जबकि जिहादी अपराधियों को अपना “भाई” मानते रहे।

# न्यायपालिका का अनुकरण और दोहरा मापदंड

स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका ने कई मामलों में गांधीजी की दृष्टि का अनुकरण किया।

गुजरात में मुस्लिम पीड़ितों के लिए सक्रियता दिखाना।

 कश्मीरी पंडितों के याचिकाओं को 1989-90 में अनदेखा करना।

 16 सितंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने खजुराहो मूर्ति पुनर्स्थापना याचिका पर टिप्पणी करते हुए संवेदनशील धार्मिक भावनाओं की अनदेखी की।

22 अगस्त 2017 का निर्णय: कोर्ट ने कुरान और शरीअत के आधार पर फैसला सुनाया, जबकि संविधान और राष्ट्रीय कानून प्राथमिक होना चाहिए था।

# राजनीतिक नेतृत्व और तुष्टिकरण नीति

राजनीतिक दलों का व्यवहार भी समान प्रवृत्ति दर्शाता है:

जिहाद और उससे प्रेरित हिंसा पर मौन।

मुस्लिम समुदाय के लिए तुष्टिकरण; हिन्दुओं के प्रति कठोरता या निष्क्रियता।

 उदाहरण: कश्मीर में 1989-91 के दौरान हिन्दुओं के नरसंहार के समय संसद और कार्यपालिका ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया।

# वर्तमान संदर्भ और निष्कर्ष

 आज भी बंगाल और अन्य क्षेत्रों में राज्य और न्यायपालिका की दृष्टि में समान दोहरा मापदंड देखा जा रहा है।

 स्वतंत्र भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन के समय से अब तक यह प्रवृत्ति बनी हुई है।

 न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को सभी नागरिकों के लिए समान न्याय और सुरक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है।

 ऐतिहासिक दृष्टि से, यह समीक्षा राज्यनीति, कानून और सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है।