‘बंगाल फ़ाइल्स’ और राजनीति का सांप्रदायिक सौदा
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
‘बंगाल फ़ाइल्स’ और राजनीति का सांप्रदायिक सौदा
फ़िल्में समाज का दर्पण कही जाती हैं, लेकिन जब वही दर्पण किसी ख़ास राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए तोड़ा-मरोड़ा जाता है, तो उसका असर कला से अधिक समाज पर पड़ता है। विवेक अग्निहोत्री की बंगाल फ़ाइल्स भी इसी बहस के केंद्र में है। पहले ताशकंद फ़ाइल्स और कश्मीर फ़ाइल्स, और अब बंगाल फ़ाइल्स—हर बार एक ही पैटर्न दिखाई देता है : इतिहास और वर्तमान की घटनाओं को मिलाकर सांप्रदायिक तनाव को हवा देना।
सिनेमा का प्राथमिक लक्ष्य मनोरंजन और रचनात्मक अभिव्यक्ति है, लेकिन यहाँ मक़सद राजनीति से पोषित आर्थिक लाभ अधिक स्पष्ट दिखता है। उदयपुर फ़ाइल्स की असफलता यह प्रमाण है कि केवल उकसावे या शोषणकारी प्रचार से जनता लंबे समय तक प्रभावित नहीं होती। बावजूद इसके, सोशल मीडिया प्रचार और भावनात्मक दृश्यों का उपयोग कर ऐसे प्रयोग लगातार जारी हैं। सवाल यह है कि समाज ऐसे सिनेमा से क्या खो रहा है—सद्भाव, सहिष्णुता और सांस्कृतिक विविधता।
फ़िल्म की रिलीज़ का समय भी इत्तिफ़ाक़ नहीं। पश्चिम बंगाल में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा ने बार-बार बंगाल में पैर जमाने की कोशिश की है, लेकिन ममता बनर्जी की लोकप्रियता और बंगाल की विशिष्ट सांस्कृतिक चेतना ने अब तक उसे रोक रखा है। “दीदी ओ दीदी” जैसे अपमानजनक संबोधन से लेकर बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा उठाने तक—भाजपा ने हर वह रास्ता अपनाया जिससे बहुसंख्यक भावनाओं को भुनाया जा सके। अब बंगाल फ़ाइल्स उसी सांप्रदायिक विमर्श को नए सिरे से हवा देने का औजार बनती दिख रही है।
बंगाल की पहचान उसकी बहुरंगी संस्कृति और समन्वित परंपराओं से रही है। दुर्गापूजा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसमें हर धर्म और वर्ग बराबर उत्साह से शामिल होता है। लेकिन अब इसमें भी विभाजनकारी दृष्टिकोण थोपे जा रहे हैं। उर्दू अकादमी द्वारा जावेद अख़्तर का कार्यक्रम रद्द करना इसी बढ़ते दबाव का परिणाम है। जावेद अख़्तर का आत्मचिंतन—“मुसलमान मुझे गैर-मुस्लिम समझता है और गैर-मुस्लिम मुझे मुसलमान समझता है”—हमारी सामूहिक असफलता का आईना है। यदि समाज अपने रचनात्मक और उदार विचारकों को जगह नहीं देगा तो धार्मिक कठोरता ही सामाजिक संवाद पर हावी हो जाएगी।
अग्निहोत्री जैसे फिल्मकार चुनावी मौसम में वही कहानियाँ चुनते हैं, जो भाजपा की चुनावी भाषा से मेल खाती हों। यह संयोग नहीं बल्कि सुनियोजित सांस्कृतिक राजनीति है। भाजपा को इससे दोहरा लाभ मिलता है—पहला, अपने समर्थक वर्ग को वैचारिक खुराक; दूसरा, चुनावी मुद्दों पर जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं—रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई—से हटाना। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री या भाजपा नेता चुनावी रैलियों में इस फ़िल्म का हवाला देते दिखाई दें।
सिनेमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि उसे समाज तोड़ने के औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाए। विवेक अग्निहोत्री मुनाफ़ा कमाने में सफल हो सकते हैं, भाजपा चुनावी लाभ ले सकती है, लेकिन नुकसान किसका होगा? जनता का, क्योंकि विभाजनकारी आख्यान समाज की नसों में ज़हर की तरह फैलते हैं।
बंगाल फ़ाइल्स केवल एक फ़िल्म नहीं, बल्कि उस प्रवृत्ति का प्रतीक है जिसमें सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को राजनीतिक हथियार बना दिया गया है। विवेक अग्निहोत्री और भाजपा की रणनीति से बड़ा प्रश्न यह है कि क्या भारतीय समाज इस सांप्रदायिक खुराक को लगातार पचाता रहेगा, या वह समझ पाएगा कि वास्तविक चुनौतियाँ और ज़रूरतें कहीं और हैं। आज आवश्यकता है विवेक, सहिष्णुता और सांस्कृतिक आत्मबोध की—न कि विभाजनकारी आख्यानों की।