पितृश्राद्ध और पितृतीर्थ की दिव्य महिमा।
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
✦ पितृश्राद्ध और पितृतीर्थ की दिव्य महिमा ✦1. पितरों का स्वरूप : वेदों की वाणी
वेदों और स्मृतियों में पितरों को देवतुल्य माना गया है।
ऋग्वेद (10.15.1) में कहा गया— “पितॄन् यंयमः पप्रथ इळेयं हविष्मान्”
अर्थात्—हे पितरों! हमारे द्वारा अर्पित हव्य को यमदेव आप तक पहुँचाते हैं।
मनुस्मृति (3.70) कहती है— “श्राद्धेन पितरो यान्ति स्वर्गं, यज्ञेन देवता”
यानी देवता यज्ञ से और पितर श्राद्ध से तृप्त होते हैं।
इसलिए श्राद्ध केवल एक कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि पितृऋण से मुक्ति का साधन है।
2. पितृलोक और योनियों में अर्पण का प्रभाव
शास्त्रों में स्पष्ट वर्णन है कि श्राद्ध में अर्पित अन्न और जल हर योनि में भिन्न रूप से पहुँचता है—
दिव्ययोनि में अमृतरूप से
पशुयोनि में तृणरूप से
सर्पयोनि में वायुरूप से
यक्षयोनि में पानरूप से
मनुष्ययोनि में अन्न-पान रूप से
इससे स्पष्ट होता है कि श्राद्ध का अर्पण केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि योगशक्ति और मंत्रबल से वास्तविक रूप में पितरों तक पहुँचता है।
3. पितृतीर्थों की महत्ता
भारतवर्ष में अनेक नदियाँ और तीर्थ पितृश्राद्ध के लिए विशेष माने गये हैं।
गया : जहाँ विष्णुपाद तीर्थ है, वहाँ पिण्डदान को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
पुष्कर : ब्रह्मा जी के तपोभूमि में किया गया श्राद्ध अक्षय फल देनेवाला कहा गया है।
नैमिषारण्य : जिसे सभी तीर्थों का सार कहा गया।
त्र्यंबक (गोदावरी तट) : यहाँ श्राद्ध करने से करोड़ों गुणा फल मिलता है।
प्रयागराज संगम : गंगा-यमुना-सरस्वती संगम को पितरों के तर्पण हेतु अतिपावन कहा गया।
शास्त्र कहते हैं— “गयायां पिण्डदानेन मोक्षः प्राप्यते ध्रुवम्”।
4. श्राद्ध और पितृदोष-निवारण
पितरों की तृप्ति न होने पर पितृदोष उत्पन्न होता है। इसके लक्षण—
संतानहीनता
अकालमृत्यु
विवाह में बाधा
आर्थिक संकट
रोग और शोक
शास्त्र बतलाते हैं कि इसका निवारण निम्न प्रकार से होता है—
कुष्माण्ड श्राद्ध – विशेष रूप से अकालमृत्यु और अन्नदोष निवारण हेतु।
तिलहोम – तिल जल से पितरों का तर्पण।
पितृसूक्त पाठ – ऋग्वेद के पितृसूक्त का जप।
ब्राह्मण भोज – पितृभोग्य अन्न के रूप में विद्वान ब्राह्मणों को भोजन।
तीर्थ श्राद्ध – गया, पुष्कर, गंगासागर आदि पितृतीर्थों में पिण्डदान।
5. श्राद्ध का फल : लौकिक और पारलौकिक
शास्त्रों में कहा गया है— “श्राद्धेन पितरः तृप्यन्ति, तृप्ताः तु ददति श्रेयः”
अर्थात्—श्राद्ध से पितर तृप्त होकर दीर्घायु, संतान, ऐश्वर्य, विद्या, राज्य और अंततः मोक्ष तक प्रदान करते हैं।
6. दार्शनिक दृष्टि
पितृश्राद्ध केवल पितरों को अर्पण नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है
यह हमें स्मरण कराता है कि हमारी जड़ें अतीत से जुड़ी हैं।
पितृऋण की स्वीकृति समाज को वंश परंपरा, संस्कृति और स्मृति से जोड़ती है।
यह अनुष्ठान कृतज्ञता और उत्तरदायित्व का प्रतीक है।
श्राद्ध और पितृतीर्थ भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में पूर्वजों के साथ संवाद का माध्यम हैं। यह केवल मृतात्माओं का स्मरण नहीं, बल्कि जीवित पीढ़ी का अपने अतीत और भविष्य से जुड़ाव है। इससे पितरों की कृपा प्राप्त होती है, और समाज कृतज्ञता व धर्मनिष्ठा की दिशा में अग्रसर होता है।