हेडलाइन मैनेजमेंट बनाम नीति — अमेरिकी टैरिफ और भारत की कूटनीतिक चुनौती

लखनऊ डेस्क पप्रदीप शुक्ला 

हेडलाइन मैनेजमेंट बनाम नीति — अमेरिकी टैरिफ और भारत की कूटनीतिक चुनौती

अमेरिकी अपील अदालत द्वारा ट्रम्प प्रशासन के टैरिफ को अस्थायी रूप से रोकने का निर्णय जितना आर्थिक है, उतना ही राजनीतिक और रणनीतिक भी। भारत में यह खबर उस समय आई जब सरकार निर्यात संकट से निपटने के लिए “स्वदेशी” और “आत्मनिर्भरता” के नारे को headline management के औजार के रूप में प्रयोग कर रही थी। विडम्बना यह है कि सबसे प्रभावी headline management यही होता कि सरकार प्रारंभ से यह तर्क प्रस्तुत करती कि ट्रम्प प्रशासन के पास यह टैरिफ थोपने का वैधानिक अधिकार नहीं है और अंततः अमेरिकी अदालत ही इसे चुनौती देगी। इससे सरकार जवाबी कार्रवाई की अपनी अक्षमता छिपा सकती थी।

लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वजह साफ है—सरकार की सलाहकार प्रणाली में न तो पर्याप्त विशेषज्ञता है, न ही दूरदृष्टि। प्रशासनिक तैयारी की कमी केवल भारत तक सीमित नहीं रही; अमेरिकी कस्टम एंड बॉर्डर प्रोटेक्शन (CBP) भी तकनीकी व कानूनी अवसंरचना की कमी के कारण समय पर टैरिफ लागू नहीं कर सका। यह समानता भारत और अमेरिका दोनों में नीति-निर्माण की जल्दबाज़ी को उजागर करती है।

 अदालत की रोक और वास्तविक प्रश्न

यह रोक अंतिम नहीं है। अक्टूबर में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि ये टैरिफ संवैधानिक हैं या नहीं। लेकिन मूल समस्या टैरिफ दरों की भिन्नता है—निर्यातक देश-उत्पत्ति छिपाकर या गलत घोषित कर लाभ उठा सकते हैं। अमेरिका चाहे तो सख्त दंडात्मक कार्रवाई करेगा, या अनदेखी कर अपनी ही साख गिराएगा। दोनों ही स्थितियों में जटिल कानूनी और कूटनीतिक उलझनें खड़ी होंगी।

अमेरिका की मजबूरी, भारत की भूल

इन टैरिफ को अक्सर “अमेरिका फर्स्ट” नीति के दंभ के रूप में देखा गया, किंतु वास्तविकता कहीं अधिक व्यावहारिक है—घाटा घटाना और घरेलू उद्योग को राहत देना। ट्रम्प के लिए यह उतना ही चुनावी हथियार है जितना आर्थिक साधन।

भारत सरकार इस बिंदु को अंतरराष्ट्रीय मंच पर रेखांकित कर सकती थी कि नीति अस्पष्ट और अस्थिर है। ऐसा करने से दबाव अमेरिका पर जाता, किंतु भारत ने उल्टा रास्ता चुना—चीन के साथ समीपता दिखाकर खुद को असहज स्थिति में डाल लिया।

 मीडिया, हेडलाइन और खोया विमर्श

भारतीय मीडिया ने इस पूरे घटनाक्रम को सतही स्तर पर प्रस्तुत किया। जहाँ एक ओर प्रधानमंत्री की चीन यात्रा और “ड्रैगन से नई दोस्ती” जैसे शीर्षक छाए रहे, वहीं टैरिफ और उसके निहितार्थ पृष्ठभूमि में चले गए। headline management का असर इतना व्यापक है कि वास्तविक मुद्दे—जैसे चुनावी धांधली के आरोप, या भारतीय रक्षा अकादमियों में घायल कैडेटों के प्रति सरकार की उपेक्षा—मुख्यधारा से बाहर रह जाते हैं। इंडियन एक्सप्रेस की खोजी रिपोर्ट से सरकार को सुधार करना पड़ा, किंतु बाकी मीडिया ने इसे अपनी प्राथमिकता नहीं बनाया।

लोकतांत्रिक दबाव और सरकार की शैली

2014 के बाद से headline management सत्ता का मुख्य उपकरण बना है। प्रेस कॉन्फ्रेंस न करने वाली सरकार असहमति को जगह नहीं देती। परिणाम यह हुआ कि संसद और मीडिया दोनों अपनी निगरानी भूमिका खोते जा रहे हैं। अमेरिका के टैरिफ संकट ने दिखा दिया है कि जब headline management विफल होता है तो सरकार की वास्तविक मजबूरी उजागर होती है।

ट्रम्प की टैरिफ नीति अमेरिकी लोकतंत्र की संस्थागत जांच-परख का उदाहरण है—जहाँ अदालतें हस्तक्षेप करती हैं और नीति की वैधता तय करती हैं। भारत में, इसके विपरीत, headline management ने आलोचना और जवाबदेही को दबा दिया है। आज सबसे बड़ा सबक यह है कि जनतंत्र में हेडलाइन से नहीं, ठोस नीति और संस्थागत पारदर्शिता से संकटों का समाधान होता है।