नमस्ते से प्रणाम तक : शास्त्र, संस्कृति और साधना।

 संवाददाता: प्रदीप शुक्ला 


नमस्ते से प्रणाम तक : शास्त्र, संस्कृति और साधना

1. नमन का शास्त्रीय आधार

‘नम्’ धातु का अर्थ है—झुकना, समर्पण करना।

शास्त्रों में बार-बार यह कहा गया है कि झुकना केवल शिष्टाचार नहीं, बल्कि अहंकार-त्याग की साधना है।


 भगवद्गीता (9.34) में भगवान कृष्ण कहते हैं—

  “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु”

  अर्थात्—“मन मुझे अर्पित करो, भक्त बनो, यज्ञ करो और मुझे नमस्कार करो।”

  यहाँ नमस्कुरु केवल झुकना नहीं, बल्कि अपने अहं को भगवान के चरणों में रख देना है।

 श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास बार-बार ‘नमामि’ का प्रयोग करते हैं—

  “नमामि ईशान निरंजन रूपा।”

  यानी—“मैं उस निरंजन, निराकार ईश्वर को नमस्कार करता हूँ।”

2. नमस्ते : आत्मा से आत्मा का मिलन

‘नमस्ते’ का गूढ़ अर्थ केवल “तुम्हें झुकता हूँ” नहीं है, बल्कि भारतीय दर्शन में यह आत्मा की आत्मा से अभिव्यक्ति है।

वेदांत कहता है—

“त्वमेव अहम्, अहमेव त्वम्” – अर्थात्, मैं और तुम अलग नहीं हैं, आत्मा एक ही है।

इसलिए नमस्ते में झुकना केवल व्यक्ति को नहीं, उस ईश्वर-अंश को है जो उसके भीतर है। यही कारण है कि नमस्ते पश्चिमी अभिवादन (हैंडशेक आदि) से अलग है, क्योंकि यह बाहरी स्पर्श नहीं बल्कि आंतरिक आत्मिक मिलन है।

3. नमस्कार : कर्मयोग का अंग

‘नमस्कार’ में ‘कार’ (क्रिया) का समावेश है। शास्त्रों में कहा गया है—

“नमस्कारः सर्वकर्मसु श्रेष्ठः” –

  अर्थात्, समर्पण का कार्य ही सर्वोत्तम कर्म है।

यही कारण है कि सूर्य-नमस्कार, गो-नमस्कार, गुरु-नमस्कार जैसी परंपराएँ बनीं। यहाँ नमस्कार केवल शब्द नहीं, बल्कि कर्मकांड और साधना है।

 ऋग्वेद (10.63.2) में कहा गया है—

  “नमो अस्तु वाचस्पतये” –

  अर्थात्, वाणी के अधिपति को नमस्कार हो।


यह स्पष्ट करता है कि नमस्कार केवल व्यक्ति को नहीं, बल्कि दैवी शक्तियों को भी अर्पित किया जाता है।

4. प्रणाम : विशेष समर्पण

‘प्रणाम’ का अर्थ है—विशेष झुकना। शास्त्रों में प्रणाम को भक्ति का शिखर माना गया है।

महाभारत (शांति पर्व, 34.8) में लिखा है—

  “प्रणम्य देवदेवं तं भूयो भूयो नमस्कृतम्।”

  अर्थात्, बार-बार झुककर देवाधिदेव को प्रणाम करना चाहिए।

 साष्टांग प्रणाम तो और भी विशिष्ट है। इसमें आठ अंगों (सिर, हाथ, पैर, छाती, घुटना, मन, वचन, दृष्टि) से भूमि पर लेटकर समर्पण किया जाता है।

  यह साधक की सम्पूर्ण सत्ता का आत्मसमर्पण है।

5. नम्रता : साधना की कुंजी

‘नम्’ से ‘नम्र’ और ‘विनम्र’ शब्द बने। शास्त्र कहते हैं—

मनुस्मृति (2.121) :

  “विनयाद् याति पात्रत्वम्” – विनय (नम्रता) से ही मनुष्य पात्रता को प्राप्त होता है।

 श्रीमद्भागवत (11.19.36) :

  “विनयः शीलसंयमः” – विनय ही शील और संयम का मूल है।

इसलिए नम्रता केवल सामाजिक गुण नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का मूल मंत्र है।

6. अन्य धर्मों में झुकना

 इस्लाम में ‘सज्दा’ (सिजदा) भी ईश्वर के सामने झुकना है।

ईसाई परंपरा में भी genuflection (घुटना टेककर प्रार्थना) विनम्रता का प्रतीक है।

बौद्ध परंपरा में बुद्ध के चरणों में ‘प्रणिपात’ (पूर्ण झुकाव) सर्वोच्च श्रद्धा मानी जाती है।

यह दर्शाता है कि झुकना मानव की सार्वभौमिक आध्यात्मिक अभिव्यक्ति है।

 अभिवादन से आत्म-समर्पण तक

‘नमस्ते’, ‘नमस्कार’ और ‘प्रणाम’ केवल अभिवादन के शब्द नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना के आयाम हैं।

नमस्ते आत्मा से आत्मा का मिलन है।

नमस्कार कर्म के माध्यम से समर्पण है।

प्रणाम सम्पूर्ण सत्ता का आत्मिक समर्पण है।

शास्त्रों में यह बार-बार कहा गया है कि जो झुकना जानता है, वही ईश्वर को पा सकता है। अहंकार उठाता है, श्रद्धा झुकाती है। और भारतीय संस्कृति का अभिवादन यही सिखाता है— “झुको तो वृक्ष फल देता है, और मनुष्य कृपा।”