मताधिकार पर संकट: आयोग जवाबदेह बने, वरना लोकतंत्र बेमानी है।

 संवाददाता: प्रदीप शुक्ला 

"मताधिकार पर संकट: आयोग जवाबदेह बने, वरना लोकतंत्र बेमानी है"

"अगर वोट सुरक्षित नहीं है, तो लोकतंत्र केवल एक दिखावा है।"

यह पूरा घटनाक्रम केवल एक प्रेस कॉन्फ्रेंस भर नहीं था—यह भारत के लोकतंत्र की नब्ज़ पर लगा स्टेथोस्कोप था, जिसने बता दिया कि सत्ता, चुनाव आयोग और मतदाता के बीच गहरी अविश्वास की खाई बन चुकी है।

"मताधिकार की रक्षा ही लोकतंत्र की आख़िरी सांस है।"

रविवार को मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार और उनके सहयोगियों की प्रेस वार्ता से उम्मीद थी कि देश को यह भरोसा मिलेगा कि उसका वोट सुरक्षित है और लोकतंत्र मज़बूत है। लेकिन हुआ इसका उल्टा। सवाल पूछने पर आयोग के मुखिया के जवाब जलेबी की तरह गोल-गोल घूमते रहे। 80 मिनट की उस लंबी प्रेस वार्ता में लोकतंत्र की आत्मा—मतदाता—को कोई आश्वस्ति नहीं मिली।

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दरअसल आयोग का यह तर्क देना कि "वोट चोरी का आरोप लगाना संविधान का अपमान है" न केवल बचकाना है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान है। आयोग संविधान से है, खुद संविधान नहीं। जनता का सवाल करना उसका अधिकार है, और उस सवाल से भागना आयोग का कर्तव्यच्युत होना है।

"जनता के सवाल से भागना, लोकतंत्र से भागने जैसा है।"

सोमवार को विपक्ष ने एकजुट होकर फिर वही मुद्दा उठाया। कांग्रेस से लेकर वामपंथी, समाजवादी से लेकर शिवसेना और यहाँ तक कि आम आदमी पार्टी तक—सबने एक ही स्वर में निर्वाचन आयोग और सत्ता की मिलीभगत पर उंगली उठाई। यह दृश्य बताता है कि लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई अब किसी एक दल की नहीं, पूरे विपक्ष की सामूहिक लड़ाई बन चुकी है।

और सच यही है—यदि लोकतंत्र पर हमला होता है, तो सबसे पहले चोट विपक्ष को लगती है, लेकिन सबसे गहरी चोट जनता को लगती है। वोट की चोरी केवल चुनाव का नहीं, बल्कि देश की आत्मा का अपहरण है।

चुनाव आयोग का रविवार को अचानक प्रेस वार्ता बुलाना और वही दिन चुनना जब राहुल गांधी और तेजस्वी यादव वोटर अधिकार यात्रा पर थे, यह संयोग नहीं, सुनियोजित संदेश था। सवाल यही है कि अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर सुनवाई कर रहा है तो आयोग को इतनी हड़बड़ी क्यों थी? क्यों नहीं वह न्यायालय के निर्णय का इंतज़ार करता?

"निर्वाचन आयोग अगर निष्पक्ष नहीं रहा, तो लोकतंत्र सत्ता का मुखोटा भर रह जाएगा।"

विपक्ष की प्रेस वार्ता में उठे सवाल—दो-दो वोटर कार्ड की गड़बड़ी, फर्जी नाम, आयोग का सत्ता पक्ष की तरफ झुकाव—इन पर आयोग का कोई ठोस उत्तर नहीं है। महुआ मोइत्रा से लेकर मनोज झा और रामगोपाल यादव तक ने तथ्यों के साथ उदाहरण दिए। और यही आयोग की असली परीक्षा थी—क्या वह इन तथ्यों का सामना करेगा या सूरज पूरब से निकलता है जैसी घिसी-पिटी उपमाओं के पीछे छिपेगा?

मोदी सरकार ने उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की घोषणा कर इस बहस से ध्यान भटकाने की कोशिश की, लेकिन विपक्ष की एकजुटता ने इस चाल को ध्वस्त कर दिया। बल्कि यह मुद्दा और तेज़ी से जनता के बीच पहुँचा।

सबसे अहम संदेश इस पूरे घटनाक्रम से यही निकला कि जब अलग-अलग राज्यों और भाषाओं के सांसद एक मंच पर खड़े होकर एक-दूसरे को सुनते और समझते हैं, तो यही असली भारत है। यह विविधता ही भारत की ताक़त है। और यही विविधता उस एकरूपता की राजनीति को हर बार चुनौती देती है जो सबको एक रंग में रंगना चाहती है।

आज सवाल केवल चुनाव आयोग की विश्वसनीयता का नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा के अस्तित्व का है। अगर वोट सुरक्षित नहीं, तो संविधान केवल एक किताब है और संसद केवल एक इमारत।

भारत के लोकतंत्र की रक्षा तभी होगी जब आयोग सत्ता के आदेशों से नहीं, संविधान की आत्मा से संचालित होगा। और यदि आयोग इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता, तो यह देश का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक घोटाला साबित होगा।

"अगर मतपेटी पर भरोसा नहीं, तो सत्ता की वैधता सिर्फ़ छलावा है।"