लोकतंत्र की कसौटी पर ‘महाभियोग’ और चुनाव आयोग की निष्पक्षता।

 संवाददाता: प्रदीप शुक्ला 

लोकतंत्र की कसौटी पर ‘महाभियोग’ और चुनाव आयोग की निष्पक्षता

भारतीय लोकतंत्र में “महाभियोग” शब्द का उच्चारण होते ही एक प्रकार का राजनीतिक कंपकंपी पैदा होती है। संविधान के अनुच्छेद 61 के अंतर्गत राष्ट्रपति के विरुद्ध ही औपचारिक रूप से महाभियोग की प्रक्रिया का प्रावधान है, किंतु आम जनमानस में प्रचलन यह है कि किसी भी उच्च पदाधिकारी की हटाने की प्रक्रिया को महाभियोग कहा जाता है। यही कारण है कि न्यायाधीशों, चुनाव आयुक्तों या अन्य संवैधानिक पदों से जुड़े विवादों में भी यह शब्द सहज ही प्रयुक्त हो जाता है। परंतु संवैधानिक दृष्टि से यह एक गंभीर भ्रांति है।

विधिक परिप्रेक्ष्य

मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया सीधे-सीधे न्यायिक मर्यादाओं से जुड़ी है। यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया के समान रखी गई है। इसके पीछे संविधान-निर्माताओं की गहरी सोच थी—जिस संस्था पर देश के लोकतांत्रिक ढाँचे को टिकाए रखने की जिम्मेदारी है, उसकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता सर्वोपरि होनी चाहिए।

‘सिद्ध कदाचार’ (proved misbehaviour) और ‘अक्षमता’ (incapacity)—ये दो ही आधार हटाने के लिए मान्य हैं। यह मात्र राजनीतिक इच्छा या सरकार की नापसंदगी का विषय नहीं हो सकता। तीन-सदस्यीय जांच समिति, जिसमें न्यायपालिका और विधि जगत की सर्वोच्च प्रतिभाएँ सम्मिलित होती हैं, वस्तुतः एक संवैधानिक कवच है, जो चुनाव आयोग को किसी भी तात्कालिक राजनीतिक दबाव से बचाता है।

राजनैतिक पक्ष

आज की राजनीति में चुनाव आयोग की भूमिका बार-बार संदेह के घेरे में आती है। विपक्षी दल अकसर यह आरोप लगाते हैं कि आयोग सत्ताधारी दल के दबाव में काम कर रहा है। जबकि सत्तारूढ़ दल यह कहता है कि आयोग पूर्णतः स्वतंत्र है। इस द्वंद्व के बीच, मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की कठिन प्रक्रिया स्वयं लोकतंत्र की रक्षा का साधन बन जाती है।

सोचिए, यदि हटाने की प्रक्रिया सरल होती, तो हर नई सरकार अपने अनुकूल आयुक्त नियुक्त करती और लोकतंत्र का पूरा ढाँचा लड़खड़ा जाता। इसीलिए यह ‘कठिनाई’ ही हमारी राजनीतिक स्थिरता का गारंटर है।

 संवैधानिक पक्ष

संविधान की आत्मा यह है कि लोकतंत्र का प्रहरी स्वयं लोकतंत्र के अस्थिर झोंकों से सुरक्षित रहे। चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के बराबर संवैधानिक संरक्षण देकर संविधान-निर्माताओं ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि चुनावी निष्पक्षता पर कोई समझौता नहीं होगा।

किन्तु यहाँ एक गंभीर प्रश्न भी उठता है—यदि किसी मुख्य चुनाव आयुक्त के विरुद्ध जन-आक्रोश व्यापक हो, और संसद में आवश्यक बहुमत न जुट पाए, तो क्या यह लोकतंत्र की भावना की उपेक्षा नहीं होगी? संविधान ने संस्थागत स्थायित्व को प्राथमिकता दी, किंतु इससे कभी-कभी जनविश्वास और संवैधानिक प्रक्रिया के बीच टकराव उत्पन्न हो सकता है।

चुनाव आयोग भारतीय लोकतंत्र का मेरुदंड है। मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया का कठिन होना यह सुनिश्चित करता है कि यह संस्था राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहे। परंतु यह कठिनाई स्वयं लोकतंत्र की एक चुनौती भी है—क्या हम जनभावनाओं, संवैधानिक प्रक्रिया और संस्थागत स्थायित्व के बीच संतुलन साधने में सफल हो पाएँगे?

लोकतंत्र का असली परीक्षण यही है कि संवैधानिक संस्थाएँ न तो राजनीतिक शक्तियों की कठपुतली बनें और न ही जनविश्वास से विमुख हों। चुनाव आयोग पर उठने वाले हर प्रश्न का उत्तर हमें इसी कसौटी पर खोजना होगा।