नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट में 'वोट चोरी' का मुद्दा: चुनाव आयोग की दलीलों पर उठे गंभीर सवाल।

 संवाददाता: प्रदीप शुक्ला

सुप्रीम कोर्ट में 'वोट चोरी' का मुद्दा: चुनाव आयोग की दलीलों पर उठे गंभीर सवाल

सुप्रीम कोर्ट में बिहार विधानसभा चुनाव के लिए चल रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई दोबारा शुरू हुई, और याचिकाकर्ताओं की दलीलों ने चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा कर दिया। इस सुनवाई ने चुनाव आयोग के अधिकारों, नागरिकता जांच की उसकी क्षमता और मतदाता सूचियों से नाम हटाने की प्रक्रिया पर कई गंभीर सवाल खड़े किए।

कानून बनाने का अधिकार किसका?

याचिकाकर्ताओं की वकील वृंदा ग्रोवर ने सबसे मजबूत दलील देते हुए कहा कि चुनाव आयोग को नए दस्तावेज़ों के बारे में कानून बनाने का अधिकार नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि कानून बनाने का अधिकार केवल संसद के पास है, और चुनाव आयोग का ऐसा कोई भी कदम संसद के अधिकारों का उल्लंघन है। 2003 के रिवीजन में जो दस्तावेज़ मांगे गए थे, वे चुनाव कानूनों के अनुरूप थे, लेकिन अब जो नए दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं, वे आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं। इस दलील के बाद कोर्ट में सन्नाटा छा गया, और चुनाव आयोग के वकील कोई ठोस जवाब नहीं दे पाए।

 नागरिकता जांचना चुनाव आयोग का काम नहीं

अभिषेक मनु सिंघवी ने अपनी दलील में जोर देकर कहा कि नागरिकता की जांच करना चुनाव आयोग का काम नहीं है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब आधार कार्ड को भी नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जा रहा, तो जिन 13 दस्तावेज़ों को मांगा जा रहा है, वे कैसे नागरिकता का प्रमाण हो सकते हैं? उन्होंने यह भी चिंता जताई कि अगर नागरिकों की नागरिकता संदिग्ध होने पर गृह मंत्रालय को लिस्ट भेजी जाती है, तो लाखों लोगों को डिटेंशन सेंटर में रखा जा सकता है। सिंघवी ने लाल बाबू हुसैन केस का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि यदि किसी वोटर ने एक बार वोट डाल दिया है, तो उसके दस्तावेज़ों की जांच हो चुकी मानी जानी चाहिए।

 क्या यह 'रिवीजन' है या 'एक्सक्लूजन'?

योगेंद्र यादव ने कोर्ट को बताया कि चुनाव आयोग जिस तरह से काम कर रहा है, उससे लगता है कि लगभग 64 लाख नाम हटाए जा चुके हैं और कुल मिलाकर 1 से 1.5 करोड़ मतदाताओं के नाम हटाए जा सकते हैं। उन्होंने दो ऐसे व्यक्तियों को कोर्ट में पेश किया, जिनके नाम रिवीजन लिस्ट में नहीं थे, जबकि वे जिंदा थे। उन्होंने इस प्रक्रिया को 'रिवीजन' नहीं बल्कि 'एक्सक्लूजन' (बहिष्करण) बताया।

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 'नॉन-कंफर्म्ड' और 'मृत' मतदाताओं पर सवाल

प्रशांत भूषण ने दो निर्वाचन क्षेत्रों की मतदाता सूची पेश करते हुए दिखाया कि 10-12% मतदाता 'नॉन-कंफर्म्ड' श्रेणी में हैं, जबकि उन्होंने सारे दस्तावेज़ जमा कर दिए थे। उन्होंने पूछा कि जब दस्तावेज़ दिए गए हैं, तो उन्हें 'नॉन-कंफर्म्ड' क्यों माना जा रहा है?

वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने तो एक निर्वाचक नामावली के 12 जीवित लोगों के नाम की सूची कोर्ट को सौंप दी, जिन्हें मृत घोषित कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि वे लोग कोर्ट में मौजूद हैं। उन्होंने इस प्रक्रिया की गंभीर कमियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि हम रिवीजन के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन जिस तरह से नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है, वह अस्वीकार्य है।

मीडिया की भूमिका और 'नेगेटिव नरेटिव'

दिलचस्प बात यह है कि इस पूरी सुनवाई के दौरान, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा यह नैरेटिव चलाता रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना और इंटेंसिव रिवीजन को जारी रखने की बात कही है। मीडिया ने याचिकाकर्ताओं की महत्वपूर्ण दलीलों और चुनाव आयोग की स्वीकारोक्ति को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया।

कल सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग अपना पक्ष रखेगा। यह देखना बाकी है कि वह इन गंभीर आरोपों का क्या जवाब देता है।