नईदिल्ली: सुप्रीम कोर्ट का कड़ा आदेश और करुणा की कसौटी।
संवाददाता: प्रदीप शुक्ला
सुप्रीम कोर्ट का कड़ा आदेश और करुणा की कसौटी
१. "सुरक्षा बनाम करुणा: आवारा कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश हमें कहां ले जा रहा है?"
२. "ये दुनिया भिड़ू की भी है — पर क्या हम भूल गए हैं?"
३. "जनसुरक्षा और पशु अधिकार: अदालत का आदेश या समाज की कसौटी?"
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को दिल्ली-एनसीआर से सभी आवारा कुत्तों को आठ सप्ताह के भीतर शेल्टर होम में भेजने का आदेश देकर एक लंबे समय से चल रही बहस को निर्णायक मोड़ पर ला दिया है। नसबंदी और टीकाकरण के बाद इन कुत्तों को सड़कों पर वापस नहीं छोड़ा जाएगा। अदालत का उद्देश्य साफ़ है—काटने की घटनाओं और रेबीज़ से मौतों पर रोक। लेकिन सवाल उठता है—क्या यह रास्ता मानवीय भी है?
28 जुलाई को स्वतः संज्ञान लेकर कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में बढ़ते कुत्ता-हमलों और रेबीज़ के आंकड़ों को गंभीरता से देखा। 2024 में देशभर में 37 लाख से अधिक काटने के मामले दर्ज हुए, जिनमें पांच लाख से ज्यादा बच्चे पीड़ित थे। दिल्ली में तो रोज़ाना औसतन 2,000 घटनाएं सामने आती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया में रेबीज़ से होने वाली मौतों का 36% भारत में होता है। यह आंकड़े बताते हैं कि समस्या वास्तविक और भयावह है—लेकिन इसका मूल कारण पशु नहीं, प्रशासन की निष्क्रियता है
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पशु जन्म नियंत्रण नियम 2023 के तहत नसबंदी और टीकाकरण के बावजूद दिल्ली में 10 लाख आवारा कुत्तों में से आधे से भी कम की नसबंदी हुई। प्रशिक्षित जनशक्ति की कमी, सीमित संसाधन और अव्यवस्थित योजनाएं असफलता के प्रमुख कारण हैं। कोर्ट ने सही रूप से दिल्ली सरकार को वैक्सीन स्टॉक और इलाज की जानकारी सार्वजनिक करने, 5,000 कुत्तों की क्षमता वाले शेल्टर बनाने और प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति के निर्देश दिए हैं। लेकिन यथार्थ यह है कि दो महीने में इतने बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित लोग और ढांचा तैयार करना लगभग असंभव है।
यहां सवाल सिर्फ सुरक्षा का नहीं, बल्कि सह-अस्तित्व के अधिकार का भी है। 2011 की फ़िल्म चिल्लर पार्टी में बच्चों का नारा—"ये दुनिया भिड़ू की भी है"—याद दिलाता है कि पृथ्वी पर केवल इंसानों का अधिकार नहीं है। जब हम बेजुबानों के हक़ छीनते हैं, तो सामाजिक और पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता है। आवारा पशुओं से खतरे वास्तविक हैं, लेकिन समाधान क्रूरता में नहीं, सुविचारित और मानवीय प्रबंधन में है।
राहुल गांधी ने इसे मानवीय और वैज्ञानिक नीति से पीछे जाने वाला कदम बताया है और सही भी है कि जनसुरक्षा और पशु कल्याण साथ-साथ चल सकते हैं। आश्रय, नसबंदी, टीकाकरण और सामुदायिक देखभाल के ज़रिये सड़कों को बिना क्रूरता के सुरक्षित बनाया जा सकता है। मेनका गांधी ने भी व्यावहारिक कठिनाइयों की ओर इशारा किया—दिल्ली में तीन लाख कुत्तों के लिए हज़ारों शेल्टर चाहिए, जिनमें ज़मीन, स्टाफ़, भोजन और चिकित्सा का मासिक खर्च करोड़ों में होगा।
आज स्थिति यह है कि एमसीडी के पास केवल 648 कर्मचारी, 24 कैचिंग वैन और 20 बंध्याकरण केंद्र हैं, जिनमें एक समय में अधिकतम 4,000 कुत्तों को रखा जा सकता है। नोएडा में एक ही शेल्टर है, फ़रीदाबाद में एक भी नहीं। इस पर बड़े कॉर्पोरेट और पशु-प्रेमी संस्थाओं की भागीदारी क्यों न हो? अगर निजी हाथों में वन्यजीव संरक्षण के लिए करोड़ों का ढांचा खड़ा हो सकता है, तो आवारा कुत्तों के लिए भी संयुक्त प्रयास क्यों नहीं?
अंततः यह बहस हमें एक गहरी सच्चाई की ओर ले जाती है—सुरक्षा और करुणा एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं। हमें ऐसी नीतियां चाहिए जो सड़कें सुरक्षित रखें, लेकिन साथ ही बेजुबानों का हक़ भी न छीने। सुप्रीम कोर्ट का आदेश समस्या को अस्थायी रूप से नियंत्रित कर सकता है, लेकिन स्थायी समाधान के लिए वैज्ञानिक योजना, संसाधन और सबसे बढ़कर, करुणा का दृष्टिकोण आवश्यक है। यही दृष्टिकोण हमें इंसान और समाज दोनों के रूप में बेहतर बनाएगा।
