एजेंडा बनाम वास्तविक अपराध: ‘द केरला स्टोरी’ और जमीनी हकीकत।
संवाददाता: प्रदीप शुक्ला
एजेंडा बनाम वास्तविक अपराध: ‘द केरला स्टोरी’ और जमीनी हकीकत2023 में सुदीप्तो सेन निर्देशित द केरला स्टोरी ने दावा किया कि केरल की 32,000 महिलाओं का जबरन धर्म परिवर्तन कर उन्हें आतंकवादी संगठनों से जोड़ा गया। फिल्म का ट्रेलर और प्रचार इस आंकड़े पर आधारित था। लेकिन जब इस पर कानूनी चुनौती दी गई और सबूत मांगे गए, तो निर्देशक कोई ठोस प्रमाण पेश नहीं कर पाए। नतीजतन, फिल्म के पोस्टर और प्रोमो सामग्री में बदलाव करना पड़ा। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी तथ्यात्मक विफलता रही—दावा भारी, सबूत शून्य। इसके बावजूद, फिल्म द्वारा गढ़ा गया नैरेटिव कुछ वर्गों में आज भी गूंजता है, जो यह दर्शाता है कि एक बार फैलाए गए आंकड़े और भावनात्मक संदेश समाज में लंबे समय तक असर डाल सकते हैं, चाहे वे तथ्यात्मक रूप से सही हों या नहीं।
वास्तविक और भयावह आंकड़े
यदि इसी पैटर्न को हम असली अपराधों पर लागू करें, तो तस्वीर कहीं अधिक डरावनी और असहज हो जाती है।
मध्य प्रदेश : हाल ही में विधानसभा में खुलासा हुआ कि राज्य से 58,000 बच्चे गायब हैं, जिनमें 47,000 लड़कियां हैं। अकेले इंदौर—जो ‘स्वच्छता अभियान’ का ब्रांड एंबेसडर है—से सबसे ज्यादा बच्चे लापता हुए। यह विडंबना है कि शहर सफाई में नंबर-वन हो सकता है, लेकिन अपराध और गुमशुदगी में भी शीर्ष पर है।
गुजरात : पिछले पांच वर्षों में 40,000 महिलाएं लापता हुईं। ये आंकड़े एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) की रिपोर्ट में दर्ज हैं। सरकार इस बात पर कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दे पाई कि इनमें से कितनी महिलाएं जीवित मिलीं और कितनी अब भी लापता हैं।
एजेंडा की राजनीति बनाम अपराध की वास्तविकता
ये आंकड़े किसी फिल्म के काल्पनिक प्लॉट नहीं, बल्कि आधिकारिक रिकॉर्ड हैं। लेकिन यहां एक विडंबना है—जब अपराध किसी विशेष नैरेटिव या राजनीतिक एजेंडे से मेल खाता है, तो उसे फिल्मों, मीडिया अभियानों और सार्वजनिक विमर्श में जगह मिलती है। परंतु जब आंकड़े असहज प्रश्न उठाते हैं—जैसे बच्चों और महिलाओं की बड़े पैमाने पर गुमशुदगी—तो अक्सर वे सुर्खियों में नहीं आते, न ही उन पर उतना शोर मचता है।
यहां हमें समझना होगा कि अपराध का मूल्यांकन क्षेत्र, धर्म, जाति या राजनीतिक सुविधा के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी गंभीरता और पीड़ित के अधिकारों के आधार पर होना चाहिए। अपराध चाहे केरल में हो, गुजरात में, मध्य प्रदेश में या किसी और राज्य में—वह अपराध ही है, और कानून के तहत कार्रवाई योग्य है।
फिल्में और सामाजिक जिम्मेदारी
फिल्में समाज का आईना हो सकती हैं, लेकिन जब वे पक्षपातपूर्ण या एजेंडा-चालित होती हैं, तो वे आईना कम और धुंधली खिड़की ज्यादा बन जाती हैं—जो दर्शकों को एक विशेष दिशा में देखने को मजबूर करती हैं। समाज में पहले से मौजूद पूर्वाग्रहों को और मजबूत करना आसान है, लेकिन उन्हें तथ्यों और संवेदनशीलता के साथ चुनौती देना कठिन।
भारत जैसे लोकतंत्र में वास्तविक अपराधों की अनदेखी कर केवल चयनित मुद्दों को उछालना न केवल न्याय प्रक्रिया को कमजोर करता है, बल्कि समाज में अविश्वास और विभाजन भी गहरा करता है। जरूरत है—तथ्य-आधारित विमर्श, बिना पूर्वाग्रह के कार्रवाई, और पीड़ितों के लिए समान न्याय की। अपराध का रंग, धर्म या भूगोल नहीं होता; इसका एक ही नाम है—अपराध।
