धुलाई पर धुलाई: खबरों की चाल और असलियत की परख
चीफ एडिटर: एम.एस वर्मा, 6397329270
धुलाई पर धुलाई: खबरों की चाल और असलियत की परखकल जिस खबर ने पहले पन्ने पर अपनी जगह बनाई थी, आज वही खबर अपने प्रचारित दावे के उलट नजर आ रही है। हम बात कर रहे हैं यमन में भारतीय नर्स निमिशा प्रिया की फांसी के मामले की। कल बताया गया था कि भारतीय अधिकारियों के अथक प्रयासों से फांसी टल गई है और सरकार के संपर्क में रहने से यह संभव हुआ है। यह एक ऐसी खबर थी, जिसे भारत सरकार की "उपलब्धि" के तौर पर खूब सराहा गया। लेकिन आज की खबरें एक अलग ही तस्वीर पेश कर रही हैं।
आज हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक कहता है, "निमिशा को माफ नहीं करेंगे, सिर्फ प्रतिशोध चाहते हैं।" द टेलीग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया भी यही बताते हैं कि पीड़ित परिवार ने निमिशा को माफ करने से इनकार कर दिया है। सामाजिक कार्यकर्ता सैमुअल जेरोम, जो निमिशा को बचाने की कोशिश कर रहे हैं, पुष्टि करते हैं कि मृतक तलाल अब्दो महदी का परिवार उन रिपोर्टों से नाराज है जिनमें उन्हें न्याय से ज्यादा पैसों में दिलचस्पी दिखाई गई है। स्पष्ट है कि कल जो खबर खुशी का माहौल बना रही थी, वह आज वास्तविकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरी।
यह घटना मीडिया कवरेज की उस प्रवृत्ति को उजागर करती है जहाँ सरकारी प्रचार को अक्सर बिना पर्याप्त पुष्टि के प्रमुखता से छापा जाता है। निमिशा प्रिया के मामले में, यह पहले से ही ज्ञात था कि यमन में भारत की राजनयिक उपस्थिति नहीं है और मामला जटिल था। फिर भी, "भारतीय अधिकारियों के नियमित संपर्क" जैसे जुमले के साथ यह संदेश दिया गया कि सब कुछ नियंत्रण में है। यह तब हुआ जब मृतक का परिवार अभी तक बातचीत में शामिल नहीं था और क्षमादान की संभावना ब्लड मनी के भुगतान और उसे स्वीकार किए जाने पर निर्भर थी। सरकार को श्रेय देने की इस जल्दबाजी ने एक अधूरी तस्वीर पेश की, जिसका नतीजा आज सबके सामने है।
लोकतंत्र में खबरों का दोहरा मापदंड
आज की कई अन्य खबरें भी मीडिया के दोहरे मापदंड को दर्शाती हैं। जहां एक ओर निमिशा प्रिया जैसी खबरें, भले ही उनकी सच्चाई संदिग्ध हो, तुरंत प्रमुखता पा जाती हैं, वहीं सरकार के लिए असहज करने वाली खबरें अक्सर किनारे कर दी जाती हैं।
उदाहरण के लिए, राहुल गांधी का असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा पर "खुद को राजा समझने" और "जेल जाने" का बयान एक महत्वपूर्ण राजनीतिक आरोप है। विशेष रूप से तब जब भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता का दावा करती है। लेकिन, इस बयान को अधिकांश अखबारों में अपेक्षित प्रमुखता नहीं मिली। वहीं, हिमंता बिस्व सरमा के "राहुल खुद जमानत पर हैं" वाले पलटवार को कुछ जगह मिली। यह दर्शाता है कि सत्ताधारी दल के खिलाफ उठाई गई आवाज को अक्सर दबा दिया जाता है या उसका महत्व कम कर दिया जाता है।
इसी तरह, जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने की राहुल गांधी की मांग भी महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे भी अपेक्षित कवरेज नहीं मिली। यह मांग पुरानी और जायज है, लेकिन सरकार की अनिच्छा के कारण यह ठंडे बस्ते में पड़ी है।
पुलिस की मनमानी और जवाबदेही का अभाव
आज के अखबारों में पुलिस की मनमानी और जवाबदेही की कमी को दर्शाने वाली कई खबरें हैं। पंजाब और हरियाणा में पुलिस के खिलाफ अदालती टिप्पणियां और ग्रामीण द्वारा पुलिस पर हमले की घटनाएँ चिंताजनक हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी ये खबरें बताती हैं कि देश में पुलिस का रवैया कितना मनमाना हो गया है, भले ही सरकार किसी भी पार्टी की हो। यह स्थिति कानून के राज और नागरिक अधिकारों के लिए एक गंभीर चुनौती है।
उपलब्धियों के आवरण में छिपी चिंताएं
सरकार अपनी "उपलब्धियों" को अक्सर बड़े पैमाने पर प्रचारित करती है, लेकिन कुछ खबरें ऐसी भी होती हैं जो इन उपलब्धियों के पीछे की चिंताओं को उजागर करती हैं। माओवादियों के खिलाफ "भारी नुकसान" के दावे वाली खबर एक तरफ सरकार की कार्रवाई को दर्शाती है, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में मौतों पर जांच और मानवाधिकारों के पहलुओं पर ध्यान देना भी उतना ही आवश्यक है।
अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर, चीन के एससीओ के रीडआउट में पहलगाम हमले का जिक्र न होना भारत की विदेश नीति के लिए एक संभावित झटका है। यह दर्शाता है कि "उपलब्धियां" हमेशा वैसी नहीं होतीं जैसी उन्हें पेश किया जाता है।
मीडिया की भूमिका और नागरिक की जिम्मेदारी
आज का दिन स्पष्ट रूप से दिखाता है कि खबरें किस तरह गढ़ी और प्रस्तुत की जाती हैं। निमिशा प्रिया का मामला, राजनीतिक बयानों की कवरेज, और पुलिस की कार्यप्रणाली पर रिपोर्टें – ये सभी दर्शाते हैं कि मीडिया को अपनी स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के प्रति अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है।
एक जागरूक नागरिक के तौर पर, हमें केवल पहले पन्ने पर छपी खबरों पर ही भरोसा नहीं करना चाहिए। हमें विभिन्न स्रोतों से जानकारी लेनी चाहिए, खबरों के पीछे की सच्चाई को समझने का प्रयास करना चाहिए, और अपने विवेक का उपयोग कर प्रचार और वास्तविकता के बीच के अंतर को समझना चाहिए। तभी हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर पाएंगे जहाँ सूचना स्वतंत्र और सटीक हो।