अनुबंधन (कंडीशनिंग) की बेड़ियाँ: बदलते भारत में मनोवैज्ञानिक और सामाजिक मुक्ति का संघर्ष

 

अनुबंधन (कंडीशनिंग) की बेड़ियाँ: बदलते भारत में मनोवैज्ञानिक और सामाजिक मुक्ति का संघर्ष

आधुनिक भारत एक विरोधाभासी दौर से गुज़र रहा है। एक ओर हम तकनीकी क्रांति, आर्थिक प्रगति और वैश्वीकरण को अपना रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हमारी सामाजिक और व्यक्तिगत चेतना अब भी सदियों पुरानी अनुबंधन (Conditioning) की बेड़ियों से जकड़ी हुई है। यह अनुबंधन—जो व्यवहार मनोविज्ञान के क्लासिकल और ऑपरेंट सिद्धांतों पर आधारित है—आज भी लिंग, जाति, वर्ग और आर्थिक व्यवहार के मानदंड तय करता है। जब हम 'कंडीशनिंग' की बात करते हैं, तो यह केवल पावलोव के कुत्ते और घंटी का प्रयोग नहीं रह जाता; यह हमारे दैनिक जीवन की पुरस्कार और दंड की वह अदृश्य प्रणाली बन जाती है, जो हमें इंसान बनने से पहले 'आदर्श भारतीय नागरिक' (स्त्री या पुरुष) बनने के लिए मजबूर करती है।


I. मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य: नैसर्गिक प्रकृति बनाम आरोपित व्यक्तित्व


कंडीशनिंग का सबसे गहरा प्रभाव हमारे मनोवैज्ञानिक ढांचे पर पड़ता है। यह हमारे सहज (नैसर्गिक) व्यवहार को दबाकर समाज द्वारा स्वीकृत 'आरोपित व्यक्तित्व' को प्राथमिकता देती है।


1. भावनात्मक कंडीशनिंग और मानसिक स्वास्थ्य

भारतीय समाज में पुरुषों को 'कठोर' और 'भावनात्मक रूप से अमानवीय' बनने के लिए अनुबंधित किया जाता है। उन्हें बचपन से ही सिखाया जाता है कि "मर्द को दर्द नहीं होता" (ऑपरेंट कंडीशनिंग)। इस व्यवहार के लिए उन्हें 'ताकतवर' या 'जिम्मेदार' कहकर पुरस्कृत किया जाता है। इसके विपरीत, अपनी भावनाओं को व्यक्त करने पर उन्हें 'कमजोर' या 'स्त्री जैसा' कहकर दंडित किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि पुरुष अपनी भावनाओं को दबाते हैं, जो अंततः अवसाद, आक्रामकता और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का रूप ले लेता है।


स्त्रियों के लिए, भावनात्मक कंडीशनिंग उन्हें 'सहनशील', 'समर्पित' और 'शांत' बने रहने के लिए प्रेरित करती है। विरोध करने पर निंदा या सामाजिक अलगाव का दंड मिलता है, जबकि सहने पर 'आदर्श गृहिणी' की प्रशंसा का पुरस्कार मिलता है। यह कंडीशनिंग स्त्रियों की आत्म-पहचान और आत्म-सम्मान को गंभीर रूप से क्षति पहुँचाती है।


2. आलोचनात्मक सोच का ह्रास

परंपरा, त्योहार या रीति-रिवाज अक्सर क्लासिकल कंडीशनिंग के तहत 'पवित्रता' या 'सही' होने की भावनाओं से जोड़ दिए जाते हैं। हमें बिना सवाल किए उन्हें स्वीकार करना सिखाया जाता है। यह प्रवृत्ति अंततः आलोचनात्मक सोच (Critical Thinking) को बाधित करती है। एक आधुनिक समाज में, जहाँ तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आवश्यक है, यह कंडीशनिंग हमें रूढ़िवादिता और अंधविश्वास के चक्र में फंसाए रखती है।


II. सामाजिक परिप्रेक्ष्य: पितृसत्ता का सुदृढ़ीकरण और 'आदर्श' की निर्मिति


भारतीय सामाजिक संरचना में, कंडीशनिंग का उपयोग मुख्य रूप से पितृसत्तात्मक मानदंडों को सुदृढ़ करने और सामाजिक पदानुक्रम को बनाए रखने के लिए होता है।


1. पितृसत्ता और ऑपरेंट कंडीशनिंग

जैसा कि विश्लेषण में स्पष्ट है, पितृसत्तात्मक संरचना में महिलाओं के व्यवहार को 'पुरस्कार और दंड' के कठोर चक्र से नियंत्रित किया जाता है।

* पुरस्कार: पितृसत्ता के माफ़िक व्यवहार (घर संभालना, कम बोलना, आर्थिक रूप से निर्भर रहना) करने पर सुरक्षा का एहसास, तारीफ़, और 'कुल की लाज' बनने का दर्जा मिलता है।

* दंड: विपरीत व्यवहार (देर से घर आना, मनचाही नौकरी करना, अपनी राय ज़ोर से रखना) करने पर निंदा, गालियाँ ('कुलटा', 'कुलक्षिणी'), बेइज्जती और कभी-कभी हिंसा का दंड मिलता है।  


यह अनुबंधन सुनिश्चित करता है कि महिलाएँ अपनी नैसर्गिक महत्वाकांक्षाओं को दबाकर केवल पितृसत्ता के अनुकूल व्यवहार करें, जिससे यह भूमिका 'प्राकृतिक' प्रतीत होने लगे।


2. जाति और वर्ग आधारित कंडीशनिंग

कंडीशनिंग केवल लैंगिक नहीं, बल्कि जाति और वर्ग आधारित भी होती है। उच्च जातियों को 'जन्मसिद्ध अधिकार' और निम्न जातियों को 'आज्ञाकारिता' के लिए अनुबंधित किया जाता है। दलित समुदायों को सदियों से ऐसे व्यवहार (ऑपरेंट कंडीशनिंग) के लिए दंडित किया गया है जो पदानुक्रम को चुनौती देता है। यह कंडीशनिंग सामाजिक गतिशीलता को अवरुद्ध करती है और स्थापित असमानता को अपरिवर्तनीय मान लेने के लिए विवश करती है।


III. आर्थिक परिप्रेक्ष्य: उपभोगवाद और रोज़गार में लैंगिक कंडीशनिंग

आधुनिक भारत में कंडीशनिंग का सबसे शक्तिशाली और सूक्ष्म रूप आर्थिक व्यवहार और उपभोगवाद में दिखता है।

1. विज्ञापन और उपभोग की क्लासिकल कंडीशनिंग

विज्ञापन और मार्केटिंग क्लासिकल कंडीशनिंग का सबसे प्रभावी उदाहरण हैं। उत्पादों को सीधे आत्म-मूल्य, सफलता, और सामाजिक स्वीकृति से जोड़ा जाता है।

उदाहरण: सौंदर्य उत्पादों को 'करियर के अवसरों को खोने' या 'शर्मिंदगी' से जोड़कर (क्लासिकल कंडीशनिंग) एक ख़ास क्रीम खरीदने के लिए अनुबंधित किया जाता है। इस तरह, हमारा आर्थिक निर्णय तर्क पर नहीं, बल्कि आरोपित सामाजिक भय पर आधारित हो जाता है।

2. रोज़गार में लैंगिक कंडीशनिंग

भारतीय कार्यबल में कंडीशनिंग गहरी जड़ें जमाए हुए है। भले ही संविधान लैंगिक समानता देता है, लेकिन समाज अब भी कुछ पेशों को 'पुरुषों के लिए आरक्षित' और कुछ को 'स्त्रियों के लिए उपयुक्त' मानता है।

पुरुषों को 'कठिन' माने जाने वाले कार्य (सेना, कार चलाना, इंजीनियरिंग) करने पर उच्च वेतन और सम्मान (पुरस्कार) मिलता है।

स्त्रियों को 'कोमल' माने जाने वाले कार्य (शिक्षण, नर्सिंग, एचआर) करने पर कम वेतन और सामाजिक सुरक्षा (पुरस्कार का निम्न रूप) मिलता है।

यह कंडीशनिंग पुरुषों को परिवार का 'प्राथमिक कमाने वाला' बनने के लिए मजबूर करती है, जिससे उन पर अत्यधिक आर्थिक दबाव पड़ता है, जबकि स्त्रियों को उनके प्राकृतिक कौशल के बावजूद अधीनस्थ भूमिकाओं में धकेल दिया जाता है।

IV. लैंगिक समानता के आधार पर मुक्ति का मार्ग

कंडीशनिंग के दोषों पर काबू पाने और एक सच्चा समतावादी समाज बनाने के लिए चेतन मुक्ति आवश्यक है।

1. कंडीशनिंग को पहचानना

पहला कदम यह पहचानना है कि हमारे अधिकांश व्यवहार प्राकृतिक नहीं, बल्कि अनुबंधित हैं। यह समझना कि पुरुष का घर में रोटी बनाना या स्त्री का ईंटें ढोना 'प्रकृति के विरुद्ध' नहीं है, बल्कि कंडीशनिंग के विरुद्ध है, मुक्ति की पहली शर्त है।

2. पुरस्कार और दंड की प्रणाली में बदलाव

हमें सामाजिक स्तर पर ऑपरेंट कंडीशनिंग की प्रणाली को बदलना होगा:

नए पुरस्कार: हमें उन व्यवहारों को पुरस्कृत करना होगा जो समानता, संवेदनशीलता और तर्क को बढ़ावा देते हैं (जैसे: पुरुषों द्वारा घरेलू काम करना, महिलाओं द्वारा नेतृत्व करना)।

नए दंड: हमें लैंगिक, जातिगत या भावनात्मक भेदभाव पर आधारित व्यवहारों को कठोरता से दंडित करना होगा।

3. लिंग निरपेक्ष शिक्षा और प्रशिक्षण

बच्चों को बचपन से ही लिंग निरपेक्ष शिक्षा देनी होगी, जहाँ योग्यता को ही एकमात्र मानक माना जाए, न कि लिंग को। खेल, करियर और जीवन कौशल के चयन में किसी भी तरह की लैंगिक कंडीशनिंग को रोका जाना चाहिए।

आधुनिक भारतीय समाज के लिए कंडीशनिंग एक दोधारी तलवार है। जहाँ यह एक ओर व्यवहार थेरेपी और शिक्षा में लाभ पहुंचा सकती है, वहीं दूसरी ओर यह पितृसत्ता, आर्थिक शोषण और लैंगिक असमानता की जड़ों को मज़बूत करती है।

"हमारा जन्म इंसान के रूप में हुआ है, लेकिन समाज हमें पुरुष और स्त्री बनाता है।"

सशक्त और समतावादी भारत के निर्माण के लिए, हमें इस अदृश्य अनुबंधन को तोड़ना होगा। यह समय है कि हम वैज्ञानिक और तार्किक चिंतन के आधार पर अपनी नैसर्गिक प्रकृति को स्वीकार करें और उन सामाजिक बेड़ियों को तोड़ दें, जो हमें केवल 'आदर्श' शोषित या शोषक बने रहने के लिए मजबूर करती हैं, न कि मुक्त और संवेदनशील मनुष्य बनने के लिए। मुक्ति किसी सरकारी फरमान से नहीं आएगी, बल्कि चेतन रूप से कंडीशनिंग को तोड़ने के व्यक्तिगत और सामाजिक संकल्प से आएगी।