बदजुबानी का 'कट्टा' और चुनाव आयोग की खामोशी—लोकतंत्र का गिरता स्तर

 लखनऊ डेस्क प्रदीप shukla 


बदजुबानी का 'कट्टा' और चुनाव आयोग की खामोशी—लोकतंत्र का गिरता स्तर

बिहार विधानसभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है, और अफसोस! इस बार भी चुनावी मैदान मुद्दों की लड़ाई से अधिक बदजुबानी की फिसलन और सत्ता की रंगदारी का अखाड़ा बन गया है। इस गिरावट की शुरुआत सत्ता के सर्वोच्च शिखर से होती है, जहाँ से भाषायी मर्यादा की अपेक्षा सबसे अधिक होती है, और यह सिलसिला वहाँ जाकर थमता है जहाँ निष्पक्षता के संरक्षक (चुनाव आयोग) की चुप्पी लोकतंत्र को असहज कर देती है।

# सत्ता के शिखर से सभ्यता का क्षरण

आम चुनाव 2024 में 'मंगलसूत्र' चोरी होने के बयान से शुरू हुई भाषाई गिरावट, अब बिहार में 'कट्टे वाली भाषा' पर उतर आई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह कहना कि "राजद ने कांग्रेस की कनपटी पर कट्टा रखकर मुख्यमंत्री पद लिया है," केवल एक उपमा नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक शिष्टाचार में एक और निचले पायदान पर उतरने का प्रमाण है।

प्रधानमंत्री, जो देश के लिए लोकशिक्षण की सबसे बड़ी जिम्मेदारी निभाते हैं, जब जनता के विवेक को निचला आंककर ऐसे 'ऊटपटांग' और निम्नस्तरीय बयान देते हैं, तो वह अपनी जिम्मेदारी से मुकर जाते हैं। यह तर्क कि 'जनता जो देखना चाहती है, वही दिखाओगे', सत्तारूढ़ नेताओं पर लागू नहीं हो सकता। राजनेताओं की भाषा समाज की सभ्यता का आइना होती है। जब सत्ता के शीर्ष से 'कट्टे' और 'लंगूर' जैसे अपशब्द (गिरिराज सिंह द्वारा राहुल गांधी पर टिप्पणी) निकलते हैं, तो यह नैतिकता का नहीं, अनैतिकता का सार्वजनिक प्रसारण बन जाता है, जिसका अनुसरण हिमंता बिस्वा सरमा जैसे नेता 'दुर्भाग्य' और 'अंधविश्वास' की बातें कहकर करते हैं।

# JDU का 'सिद्धांत' से 'रंगदारी' तक का सफर

भाषाई मर्यादा का यह पतन केवल भाजपा तक सीमित नहीं है। सिद्धांतों की राजनीति करने वाली जदयू (JDU) भी अब उसी रंग में रंगी दिखती है। केंद्रीय मंत्री ललन सिंह का मोकामा में यह कहना कि 'कुछ लोगों को चुनाव के दिन घर से बाहर नहीं निकलने देना है'—सीधे तौर पर मतदाताओं को धमकाने और वोट चोरी की खुली धमकी है।

यह बयान तब आया है जब मोकामा सीट पर एक हत्याकांड के आरोपी को टिकट दिया गया और ललन सिंह स्वयं उसका बचाव कर रहे हैं। यह स्थिति चुनावी रंगदारी (Electoral Intimidation) का चरम है, जो लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांत—स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान—को सीधी चुनौती देती है। विपक्ष द्वारा जिस 'वोट चोरी' के डर की बात की जा रही थी, ललन सिंह का यह बयान उसे सत्य में बदलता दिखता है।

# चुनाव आयोग की खामोशी: सबसे बड़ी चिंता

इन दोनों संकटों—भाषाई अराजकता और चुनावी रंगदारी—के बीच भारत निर्वाचन आयोग (ECI) की भूमिका सबसे अधिक चिंताजनक है।

1. चयनित संज्ञान: प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा 'कट्टा' वाली भाषा का प्रयोग हो या विपक्ष के नेता को 'लंगूर' कहने की बदजुबानी, इन पर आयोग स्वप्रेरणा से (Suo Motu) कोई कड़ा संज्ञान नहीं लेता।

2. ढुलमुल रवैया: जब ललन सिंह मतदाताओं को घर में बंद रखने की सीधी धमकी देते हैं, तब विपक्षी दलों द्वारा वीडियो पोस्ट किए जाने के बाद आयोग 'नोटिस भेजकर 24 घंटे में जवाब मांगने' जैसी ढीली-ढाली कार्रवाई करता है। यह रवैया स्पष्ट रूप से बताता है कि कड़ी दंडात्मक कार्रवाई (जैसे चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध) की कोई बड़ी मंशा नहीं है।

3. पक्षपात का आभास: जो बात विपक्षी दल पहले दिन से देख लेते हैं, वह आयोग को तब तक नज़र क्यों नहीं आती जब तक कि शोरगुल इतना न बढ़ जाए कि उसे संज्ञान लेना मजबूरी बन जाए? यह ढुलमुल रवैया जनता के बीच यह संदेश देता है कि निष्पक्षता का संरक्षक भी सत्ता के दबाव में है और अपनी जिम्मेदारी से मुकर रहा है।

लोकतंत्र में लगातार तीन लोकसभा और कई विधानसभा चुनावों में एक ही तरीके से जीतते जाने का प्रभाव जनता में लाचारी की भावना को बढ़ाता है। लेकिन जब चुनावी रंगदारी सरेआम होने लगे और चुनाव आयोग भी लाचार दिखे, तो यह लाचारी मानसिक स्वास्थ्य से हटकर संवैधानिक स्वास्थ्य का संकट बन जाती है।

भाजपा और जदयू को समझना होगा कि बदजुबानी और धमकी से मिली जीत, लोकशिक्षण और सभ्यता की हार है। और चुनाव आयोग को यह स्पष्ट करना होगा कि क्या वह 'निष्पक्षता का दिखावा' कर रहा है, या वास्तव में 'लोकतंत्र की हिफाज़त' करने के लिए तैयार है। क्योंकि भाषाई सभ्यता का क्षरण हो या चुनावी रंगदारी, लोकतंत्र के पहरेदार की चुप्पी इन दोनों अपराधों को वैधता प्रदान करती है।