तालिबान की 'मौखिक गारंटी' और पाकिस्तान का गतिरोध—सीमा पर विश्वास का संकट

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


तालिबान की 'मौखिक गारंटी' और पाकिस्तान का गतिरोध—सीमा पर विश्वास का संकट

— ख़्वाजा आसिफ़ का ऐलान: पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान वार्ता स्थगित—क्या अब सैन्य जवाब ही एकमात्र विकल्प?

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ का यह ऐलान कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच सभी बातचीत पूरी तरह रुक गई है और पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल तुर्की से खाली हाथ लौट रहा है, इस क्षेत्र में एक बड़े कूटनीतिक गतिरोध की पुष्टि करता है। यह गतिरोध, जिसका केंद्र तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के लड़ाकों को लेकर सुरक्षा संबंधी चिंताएँ हैं, अब बातचीत की मेज से युद्ध के मैदान की धमकियों तक पहुँच गया है।

# विश्वास का संकट: 'मौखिक' बनाम 'लिखित'

बातचीत के रुकने का मूल कारण विश्वास का गहरा संकट है। ख़्वाजा आसिफ़ का दावा है कि अफ़ग़ान प्रतिनिधिमंडल मौखिक रूप से पाकिस्तान की चिंताओं को स्वीकार कर रहा था, लेकिन इसे लिखित रूप में देने को तैयार नहीं था।

अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में, केवल 'भरोसा' करने का मौखिक आश्वासन राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर शून्य महत्व रखता है। पाकिस्तान की मांग बिल्कुल उचित है कि टीटीपी लड़ाकों को लेकर किसी भी समझौते को लिखित रूप में आना चाहिए, खासकर जब पाकिस्तान का आरोप है कि ये लड़ाके अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार के संरक्षण में हैं और उनके क्षेत्र से पाकिस्तान पर हमला कर रहे हैं। तालिबान का लिखित समझौते से इनकार, इस बात का प्रमाण है कि या तो वे टीटीपी को नियंत्रित नहीं कर सकते, या वे जानबूझकर उन्हें रणनीतिक गहराई (Strategic Depth) के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।

# मध्यस्थों की निराशा और सैन्य जवाब की धमकी

कतर द्वारा की जा रही मध्यस्थता का विफल होना स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है। आसिफ़ का यह बयान कि "मध्यस्थ भी पीछे हट गए हैं" क्योंकि उन्हें सफलता की कोई उम्मीद नहीं है, बातचीत की मेज के पूरी तरह से ढहने का सूचक है।

पाकिस्तान ने पिछले महीने काबुल और सीमावर्ती इलाकों पर जो हमला किया था, वह यह दिखाता है कि पाकिस्तान सैन्य कार्रवाई करने से नहीं हिचकेगा। आसिफ़ की यह धमकी कि "अगर स्थिति फिर बिगड़ती है और उनके क्षेत्र से हमारे ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई की जाती है तो पाकिस्तान फौरन जवाब देगा," यह संकेत देती है कि पाकिस्तान अब कूटनीतिक धैर्य खो चुका है और प्रत्यक्ष सैन्य जवाब (Direct Military Retaliation) को ही एकमात्र प्रभावी विकल्प मानता है।

दूसरी ओर, अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार का "अपने देश की संप्रभुता की हर कीमत पर रक्षा" करने का दावा, सीमा पर किसी भी कार्रवाई के लिए प्रतिशोध (Retaliation) को अवश्यंभावी बनाता है।

# क्षेत्रीय अस्थिरता के निहितार्थ

यह गतिरोध न केवल पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए खतरनाक है:

1. टीटीपी का emboldenment: तालिबान के लिखित इनकार से टीटीपी को यह संकेत मिलता है कि वे सुरक्षित हैं, जिससे वे पाकिस्तान में और अधिक हिंसक कार्रवाई करने के लिए embolden हो सकते हैं।

2. मानवीय संकट: सीमा पर सैन्य तनाव बढ़ने से व्यापार मार्ग प्रभावित होंगे, जिससे पहले से ही आर्थिक संकट का सामना कर रहे दोनों देशों में मानवीय और आर्थिक संकट और गहरा सकता है।

3. अंतर्राष्ट्रीय अलगाव: यह विफलता दिखाती है कि तालिबान सरकार को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में शामिल करने या उसे सुरक्षा मानकों का पालन कराने की कोशिशें सफल नहीं हो रही हैं।

पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान संबंधों में बातचीत का टूटना एक गहन विश्वासघात का नतीजा है, जहाँ राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर मौखिक आश्वासन पर्याप्त नहीं हैं। इस्लामाबाद ने अब कूटनीति के अध्याय को बंद कर दिया है, और अब यह गेंद पूरी तरह से टीटीपी और तालिबान के पाले में है। सीमा पर गोलीबारी की एक भी घटना इस क्षेत्र को एक अनियंत्रित सैन्य संघर्ष की ओर धकेल सकती है।

"अफ़ग़ान सीमा पर शांति के लिए पाकिस्तान को 'कागज़' चाहिए था, और तालिबान केवल 'कसम' देने को तैयार था; अब कागज़ की जगह, दोनों ओर से 'कारतूस' बोलने को तैयार हैं।"