मूल निवास की संकीर्ण सियासत: उत्तराखंड खुद को बाहर कब निकालेगा?
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
मूल निवास की संकीर्ण सियासत: उत्तराखंड खुद को बाहर कब निकालेगा?
उत्तराखंड के रजत जयंती वर्ष के विशेष विधानसभा सत्र को राज्य की 25 साल की यात्रा पर विचार करना था, मगर अफ़सोस! यह मंच बन गया क्षेत्रीय संकीर्णता और सियासी ज़हर उगलने का। जिस राज्य की नींव ही दर्द और संघर्ष पर टिकी थी, आज 25 साल बाद उसके ही जन प्रतिनिधि 'पहाड़ बनाम मैदान' की बहस को इतनी तीखी धार दे रहे हैं कि यह विभाजनकारी राजनीति आत्मघाती लगती है।
एक विधायक सदन के भीतर खड़े होकर कहते हैं कि उत्तराखंड को लोग 'धर्मशाला' समझकर रह रहे हैं और बाहर से आए लोग फ़ायदा ले जा रहे हैं, जबकि सीधा-सादा पहाड़ी मुंह ताकता रह जाता है। यह बयान नहीं, बल्कि उत्तराखंड की समावेशी भावना पर सीधा हमला है।
दिल्ली-यूपी में बैठे हमारे 'मूल निवासियों' का क्या होगा?
जो नेता आज 'मूल निवास' की तलवार खींचकर राज्य की 25 साल पुरानी आबादी को 'बाहरी' करार देने पर तुले हैं, उन्हें एक पल रुककर सोचना चाहिए।
जरा कल्पना कीजिए! उत्तराखंड आज जिस 'मनी ऑर्डर इकोनॉमी' पर टिका है, उसका आधार कौन है? वे लाखों उत्तराखंडी जो उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मुंबई और देश के कोने-कोने में नौकरी कर रहे हैं! पलायन के दर्द से उपजा यह राज्य आज भी अपने बच्चों को पेट भरने के लिए बाहर भेजता है।
अगर कल हरिद्वार या देहरादून के 'बाहरी' लोगों को बाहर का रास्ता दिखाने की यह संकीर्ण सियासत सफल हो जाती है, तो क्या गारंटी है कि दूसरे प्रदेशों में रहने वाले हमारे 'मूल निवासियों' के साथ भी वही सलूक नहीं होगा?
अगर उत्तर प्रदेश सरकार यह तय कर दे कि उनके यहाँ 15 साल से रह रहे और काम कर रहे उत्तराखंडी 'मूल निवासी' नहीं हैं, तो क्या होगा? अगर दिल्ली की नौकरियाँ और संसाधन केवल वहीं के 'मूल निवासियों' के लिए आरक्षित हो जाएं, तो उत्तराखंड के हज़ारों परिवारों की रसोई में चूल्हा कैसे जलेगा? यह पहाड़ी गौरव की नहीं, बल्कि खुलेआम आत्महत्या की राजनीति है।
असली दर्द से आँखें क्यों चुराते हैं?
यह 'पहाड़ बनाम मैदान' की बहस, पलायन और रोज़गार के असली दर्द से ध्यान भटकाने का सबसे सस्ता और घटिया हथियार है।
जिन नेताओं का 'पहाड़ प्रेम' सिर्फ़ सदन में भाषणों की खाल तक सीमित है और जिनके आलीशान निवास देहरादून, डोईवाला और हल्द्वानी के प्लेन एरिया में हैं, वे हमसे 'पहाड़ के दर्द' की बात न करें। अगर 25 साल तक सत्ता की मलाई पहाड़ के नेताओं को ही मिलती रही (जैसा कि हरिद्वार के बीएसपी विधायक ने सही सवाल उठाया), फिर भी पहाड़ से पलायन नहीं रुका, तो दोष किसका है?
दोष भू-कानून या मूल निवास का नहीं, बल्कि नीतिगत इच्छाशक्ति की कमी और विकास की राजनीति को किनारे रखकर पहचान की राजनीति करने वाले नेतृत्व का है।
उत्तराखंड को धर्मशाला समझने की बात करने वाले नेता दरअसल उत्तराखंड की नींव को ही धर्मशाला बना देना चाहते हैं, जहाँ स्थानीय बनाम बाहरी के विवाद में असली मुद्दे दम तोड़ दें।
ख़तरा सिर्फ़ सदन में नहीं, सड़क पर है
वरिष्ठ पत्रकारों की यह चिंता जायज़ है कि यह आग अब सिर्फ़ सोशल मीडिया या सदन की कार्यवाही तक सीमित नहीं रहेगी। धनबल और बाहुबल वाले नेताओं ने इस मुद्दे को लपक लिया है, जो 2027 की चुनावी बिसात बिछाने में लगे हैं।
उत्तराखंड का भविष्य विभाजन की इस संकीर्ण रेखा में नहीं, बल्कि इस बात में है कि हम पहाड़ और मैदान के बच्चों को एक ही उत्तराखंडी पहचान दें। हमें 'मूल निवास' नहीं, बल्कि 'मूल विकास' की गारंटी चाहिए।
यह विधानसभा और राजनीतिक दल तय करें कि क्या उन्हें एक स्वस्थ और एकजुट उत्तराखंड चाहिए, या क्षेत्रीय नफ़रत की बुनियाद पर खड़ा एक ऐसा राज्य जो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा हो। संकीर्णता की यह सियासत उत्तराखंड को केवल 'बाहर' ही निकालेगी, विकास नहीं कर पाएगी।
