राष्ट्रवाद की नकली डिबेट और असली संकट: मोदी का 'वंदे मातरम' दाँव

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


राष्ट्रवाद की नकली डिबेट और असली संकट: मोदी का 'वंदे मातरम' दाँव

जब देश ज्वलंत समस्याओं—गंभीर बेरोजगारी, गिरती अर्थव्यवस्था और चुनावी प्रक्रिया की शुचिता पर उठे 'हाइड्रोजन बम' जैसे सवालों—से जूझ रहा है, तब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर इतिहास की राख कुरेदकर एक ऐसा विवाद खड़ा कर दिया है जो उनकी घबराहट और वैचारिक दिवालिएपन को दर्शाता है। उनका नया निशाना है: राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम'।

प्रधानमंत्री का आरोप है कि 1937 में पं. नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने गीत के कुछ पद हटाकर न सिर्फ इसकी 'आत्मा' को खंडित किया, बल्कि देश के विभाजन के बीज भी बो दिए। यह आरोप हास्यास्पद, दुर्भावनापूर्ण और ऐतिहासिक तथ्यों का आपराधिक विरूपण है। यह सीधे तौर पर बताता है कि जब वास्तविक समस्याओं का समाधान करने की काबिलियत न हो, तो आभासी मुद्दों की अफ़ीम पिलाकर जनता का ध्यान कैसे भटकाया जाता है।

# झूठ की राजनीति और संवैधानिक गरिमा का अपमान

यह कौन सा राष्ट्रवाद है जो अपने ही देश के संस्थापकों, संविधान निर्माताओं और नोबेल पुरस्कार विजेताओं पर संदेह करता है?

नेहरू नहीं, राष्ट्रीय सहमति थी: क्या प्रधानमंत्री भूल गए कि रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान कवि, और सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रीय सेनानियों ने भी माना था कि गीत के अंतिम छंद धार्मिक संदर्भ के कारण मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को आहत कर सकते हैं? क्या डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1950 में प्रथम दो पदों को राष्ट्रगीत का सम्मान देकर गलती की थी? मोदी का हमला नेहरू पर नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की सामूहिक बुद्धि और संवैधानिक प्रक्रिया पर है।

 संघ की 'गद्दारी' पर पर्दा: यह विवाद असल में अपने पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की असहज सच्चाई को छिपाने का एक ढोंग है। जिस संगठन ने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी नहीं की और जिसने अपने किसी भी कार्यक्रम में कभी 'वंदे मातरम' का गायन नहीं किया (बल्कि संगठन-भक्ति से भरे 'नमस्ते सदा वत्सले' को अपनी प्रार्थना बनाया), उसका मुखिया आज कांग्रेस से राष्ट्रगीत पर सवाल कर रहा है—यह विडंबना नहीं, घोर पाखंड है।

 चुनाव में फ़ंसे मोदी: बिहार चुनाव में भाजपा बुरी तरह फँसी हुई है, और राहुल गांधी ने 'वोट चोरी' के जो सबूत दिए हैं, उस पर प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के पास कोई ठोस, ईमानदार जवाब नहीं है। अब उन्हें पश्चिम बंगाल चुनाव दिख रहा है, इसलिए बंकिमचंद्र चटर्जी और वंदे मातरम के बहाने बंगाली भावनाओं को भुनाने का पुराना, घिसा-पिटा दाँव चल रहे हैं।

# जनता को गुमराह करना बंद करें!

प्रधानमंत्री को समझना चाहिए कि इतिहास को मोड़-तोड़कर और सांप्रदायिक विमर्श खड़ा करके राष्ट्रवाद का सर्टिफिकेट नहीं मिलता। राष्ट्रवाद का अर्थ है जनता की सेवा, किसानों को डीएपी खाद देना, सड़कों पर घूमते बाघों से सुरक्षा देना, और देश के लोकतंत्र की संस्थाओं (जैसे चुनाव आयोग) की विश्वसनीयता बनाए रखना—न कि उसे दाँव पर लगाना।

यह देश अब इतना भोला नहीं रहा कि वह गोबर और पत्थर फेंकने वाले आक्रोश के मूल कारण (सड़क और विकास की कमी) को छोड़कर, 150 साल पुराने विवाद में उलझ जाए।

मोदी का यह 'वंदे मातरम' दाँव सिर्फ एक चुनावी स्टंट है। देश के लोगों को स्पष्ट होना चाहिए: जब प्रधानमंत्री 'विभाजन' की बात करते हैं, तो वे असल में ध्यान भटकाकर वास्तविक समस्याओं से और अधिक विभाजन पैदा करने की कोशिश कर रहे होते हैं।