संपादकीय स्वतंत्रता बनाम 'सेंट्रल डेस्क' का फरमान—भारतीय मीडिया का नियंत्रण संकट
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
संपादकीय स्वतंत्रता बनाम 'सेंट्रल डेस्क' का फरमान—भारतीय मीडिया का नियंत्रण संकट
दैनिक जागरण द्वारा अपने मेरठ संस्करण में गलती से 'नेशनल ब्यूरो का डे प्लान' छाप देना केवल एक तकनीकी भूल नहीं है; यह एक ऐसा विस्फोटक दस्तावेज़ है जिसने भारतीय मीडिया में लंबे समय से चल रहे संपादकीय स्वतंत्रता (Editorial Independence) और केंद्रीय नियंत्रण के संकट को सार्वजनिक रूप से उजागर कर दिया है। जब एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्र की आंतरिक रणनीति में गृह मंत्री अमित शाह के इंटरव्यू को 'फुल पेज प्राथमिकता के आधार पर हर संस्करण में छापने का आदेश' जारी होता है, तो यह पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है।
1. संपादकीय स्वतंत्रता का क्षरण: 'आदेश' की संस्कृति
संपादकीय स्वतंत्रता का अर्थ है कि समाचारों के चयन, प्राथमिकता और प्रस्तुति का निर्णय केवल पत्रकारिता के मानदंडों, पाठकों के हित और सामाजिक प्रासंगिकता के आधार पर हो।
'कंट्रोल रूम' की राजनीति: यह 'डे प्लान' सिद्ध करता है कि बड़े मीडिया संस्थानों में निर्णय अब 'ग्राउंड रिपोर्ट' से नहीं, बल्कि 'सेंट्रल डेस्क' से नियंत्रित होते हैं, जो अक्सर राजनीतिक या व्यावसायिक हितों से संचालित होते हैं।
राजनीतिक प्रभाव का दबाव: एक विशिष्ट राजनीतिक व्यक्तित्व (सत्ताधारी दल के शीर्ष नेता) को अनिवार्य रूप से फुल पेज कवरेज देने का आदेश, यह दिखाता है कि संपादकों की भूमिका अब पत्रकारिता करने की बजाय, प्रबंधन के राजनीतिक आदेशों का पालन करने तक सीमित हो गई है। यह स्थिति निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए ज़हर है।
लोकतंत्र पर प्रभाव: मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह शक्ति की निगरानी करता है। जब मीडिया स्वयं शक्ति के प्रति निष्पक्षता खो देता है और सरकारी 'प्रचार' का वाहक बन जाता है, तो लोकतंत्र में जवाबदेही (Accountability) की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है।
2. 'कवरेज' या 'विज्ञापन': अस्पष्ट होती सीमाएँ
यह घटना कवरेज (Coverage) और प्रचार (Propaganda) या पेड न्यूज़ (Paid News) के बीच की पतली रेखा को धुंधला करती है।
गोपनीयता का पर्दा: यदि यह कवरेज पत्रकारिता के सिद्धांत पर आधारित होता, तो उसे 'आदेश' के रूप में आंतरिक रूप से प्रसारित करने की आवश्यकता नहीं होती। 'आदेश' शब्द स्पष्ट रूप से किसी बाहरी दबाव या बाध्यकारी समझौते की ओर इशारा करता है।
व्यावसायिक हित: बड़े मीडिया समूहों के व्यापारिक हित अक्सर सरकार के साथ जुड़े होते हैं (जैसे सरकारी विज्ञापन, भूमि आवंटन, नियामक समर्थन)। इस 'सांठगांठ' के बदले में, प्रमुख मीडिया हाउस अनुकूल कवरेज या अनिवार्य प्राथमिकता प्रदान करते हैं। दैनिक जागरण की चूक ने इस अदृश्य सौदेबाजी को सतह पर ला दिया है।
3. आंचलिक मीडिया की स्वतंत्रता का हनन
दैनिक जागरण के विभिन्न क्षेत्रीय संस्करण (जैसे मेरठ) अक्सर अपने पाठकों के लिए स्थानीय खबरें लीड बनाते थे। इस केंद्रीय आदेश ने यह सुनिश्चित किया कि क्षेत्रीय संस्करणों की संपादकीय स्वायत्तता भी केंद्रीय नियंत्रण के सामने समाप्त हो जाए।
स्थानीयता का बलिदान: इसका अर्थ है कि स्थानीय रूप से महत्वपूर्ण खबरें—जैसे कि स्थानीय भ्रष्टाचार, जल संकट, या क्षेत्रीय राजनीति—भी राष्ट्रीय प्रचार के सामने महत्वहीन हो जाती हैं। यह स्थानीय पत्रकारिता और पाठकों के हितों का बलिदान है।
4. आगे का रास्ता: नियंत्रण नहीं, स्वतंत्रता
भारत में मीडिया के समक्ष इस नियंत्रण संकट से उबरने के लिए कठोर कदम उठाने होंगे:
आंतरिक 'फ़ायरवॉल' (Internal Firewall): प्रबंधन और संपादकीय कक्ष के बीच एक मजबूत और अपरिवर्तनीय 'फ़ायरवॉल' स्थापित करना अनिवार्य है। संपादकों को राजनीतिक या व्यापारिक दबावों से पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।
ओम्बुड्समैन (Ombudsman) की नियुक्ति: बड़े मीडिया घरानों को एक स्वतंत्र और शक्तिशाली 'ओम्बुड्समैन' नियुक्त करना चाहिए जो पाठकों की शिकायतों पर संज्ञान ले और संपादकीय चूकों तथा पक्षपात की जांच कर सके।
सरकारी विज्ञापन में पारदर्शिता: सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकारी विज्ञापन अख़बारों की निष्पक्षता के आधार पर नहीं, बल्कि केवल प्रसार संख्या और भौगोलिक पहुँच के आधार पर वितरित हों।
दैनिक जागरण की यह भूल एक अलार्म है। जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ खुद ही गोपनीय आदेशों पर काम करने लगे, तो लोकतंत्र में पारदर्शिता और निष्पक्षता की उम्मीद करना बेमानी हो जाता है। मीडिया को यह तय करना होगा कि वह सत्ता का मुखपत्र बनेगा या जनता की आवाज़।
