बांग्लादेश से दिल्ली तक: शेख हसीना, भारतीय राजनीति और मीडिया की दोहरी चुप्पी

लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

बांग्लादेश से दिल्ली तक: शेख हसीना, भारतीय राजनीति और मीडिया की दोहरी चुप्पी

बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के खिलाफ दिया गया मृत्युदंड का फैसला केवल ढाका की राजनीति का संकट नहीं है—यह भारतीय विदेश नीति, शरण-नीति, मीडिया की प्राथमिकताओं और सत्ता की ‘कथाओं’ की गहरी जांच का अवसर भी है। दिलचस्प और चिंताजनक यह है कि बांग्लादेश में उन्हें जिस गैर निर्वाचित शासन के अधीन न्यायाधिकरण ने दोषी ठहराया है, उस फैसले को वे राजनीति से प्रेरित और पक्षपाती बता रही हैं; और दूसरी ओर शरण उन्हें एक ऐसी सरकार ने दे रखी है जिस पर चुनाव चोरी के आरोप लगते रहे हैं। विरोधाभास इतना स्पष्ट है कि प्रश्न स्वतः उभरता है—क्या हम केवल दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों पर टिप्पणी करते हैं या अपने भीतर की असुविधाजनक सच्चाइयों को अनदेखा करने की आदत बना ली है?

## हसीना–असदुज्जमां प्रकरण: भारत की चुप्पी और ज़िम्मेदारी

आज की खबरों से पता चला कि शेख हसीना के साथ उनके पूर्व गृहमंत्री असदुज्जमां खान को भी मृत्युदंड मिला है—और दोनों भारत में रह रहे थे। अर्थात् भारत ने न सिर्फ़ हसीना को, बल्कि उनके महत्वपूर्ण सहायक को भी शरण प्रदान की।

यह एक बड़ा तथ्य है जो जनता को बताया जाना चाहिए था। मीडिया ने शीर्षक तो लगाए—

* “हसीना को सजा-ए-मौत”

* “ढाका उन्हें वापस चाहता है”

लेकिन प्रेस ने इस बेहद महत्वपूर्ण तथ्य पर कम ही रोशनी डाली कि दोषी घोषित किए गए इन दोनों नेताओं को भारत ने ही सुरक्षा, संरक्षण और मेजबानी दी हुई है।

जब बांग्लादेश ने भारत से प्रत्यर्पण की मांग की, तो भारत ने जवाब दिया कि वह “सभी हितधारकों से रचनात्मक बातचीत” करेगा। यह वही भाषा है जो सरकार तब अपनाती है जब वह न कुछ कहना चाहती है, न कुछ स्वीकार करना।

## क्या भारत की शरण नीति के दो मानदंड हैं?

भारत लगातार बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की चिंता जताता रहा है—जो वास्तविक भी है और मानवीय आधार पर उचित भी। लेकिन आज वही भारत दो बांग्लादेशी नेताओं को संरक्षण दे रहा है जिनपर मानवता के खिलाफ अपराधों के आरोप न्यायाधिकरण ने लगाए हैं।

क्या भारत का संदेश यह है कि—

* लोकतंत्र और मानवाधिकार सार्वभौमिक मुद्दे हैं,

  लेकिन…

* उसका राजनीतिक लाभ किसके पक्ष में है, यह तय करेगा कि किसे शरण मिलेगी और किसे नहीं।

यह विदेश नीति के ‘नैतिक पूंजी’ को कमजोर करता है।

## भारतीय मीडिया की चयनित दृष्‍टि

भारतीय मीडिया का ध्यान आज लगभग पूर्णतः हसीना के मृत्युदंड की सुर्ख़ियों पर था—पर संदर्भ गायब।

* इंडियन एक्सप्रेस ने बताया कि हसीना अगस्त 2024 में भारत भाग आई थीं।

* टेलीग्राफ ने मुद्दे को चुनाव से जोड़कर दिखाया।

* हिंदू ने छात्रों के दमन को आधार बनाया।

लेकिन यह लगभग किसी ने नहीं बताया कि भारत में शरण प्राप्त इन नेताओं का भविष्य और भारत की भूमिका क्या होगी। यही वह चुप्पी है जो खबरों की रीढ़ तोड़ देती है—तथ्य तो छपते हैं, पर पूरी कहानी नहीं।

## नीतीश–भाजपा–दिल्ली: घरेलू राजनीति का हाशिये पर जाना

दिल्ली–ढाका प्रकरण की गरमाहट में बिहार की राजनीति आज पीछे छूट गई। भाजपा की ऐतिहासिक जीत के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा की मजबूरी बन गया—न कि रणनीति। यह चुनावी आँकड़ों की रोशनी में भाजपा का असाधारण “compulsion over conviction” क्षण था

एक बार फिर सिद्ध हुआ—राजनीतिक गठबंधन संख्याओं से नहीं, परिस्थितियों से बनते हैं।

## रामनाथ गोयनका व्याख्यान में प्रधानमंत्री: आलोचनात्मक विमर्श का विडंबनापूर्ण क्षण


व्याख्यान का विषय था—

"सत्य-कथन, जवाबदेही और विचारों की शक्ति।

वहां भाषण देने आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने अपने 11 वर्षों के कार्यकाल में एक भी खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की और जिन्होंने आलोचनात्मक पत्रकारिता को अपने राजनीतिक-पारिस्थितिकी में लगभग अप्रासंगिक बना दिया है।

उनका भाषण स्वाभाविक रूप से विकास, नीयत और जनादेश की भाषा में था। लेकिन सवाल यह है कि—

* 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन पर रखना क्या विकास है?

* टोल और निजीकरण आधारित बुनियादी ढांचे को विकास का पैमाना मानना कितना यथार्थवादी है?

* बंद पड़े हवाईअड्डों के उद्घाटन के मायने क्या हैं?

प्रधानमंत्री के बयानों में आशावाद था—लेकिन नीतिगत स्पष्टता का वह हिस्सा गायब था जो “विकास मॉडल” की ईमानदार समीक्षा कर सके।

## दो संकट—एक अंतरराष्ट्रीय, एक घरेलू

1. अंतरराष्ट्रीय घाटा

   * हसीना प्रकरण से भारत की विदेश नीति का नैतिक आधार कमजोर हुआ है।

   * शरण की नीति को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं।

   * अल्पसंख्यक–अधिकार बनाम राजनीतिक शरण—दोनों में दोहरा मानदंड साफ दिख रहा है।

2. घरेलू घाटा

   * आलोचनात्मक पत्रकारिता हाशिये पर है।

   * शासन की जवाबदेही ‘व्याख्यानों’ में तो है, पर प्रेस कॉन्फ्रेंसों में नहीं।

   * विकास का विमर्श आंकड़ों से नहीं, नारों और भावनाओं से संचालित हो रहा है।

भारत फिलहाल दो तरह की चुप्पियों का भार ढो रहा है—

एक चुप्पी विदेशी नेताओं के संरक्षण पर,

 दूसरी चुप्पी घरेलू राजनीति की जोखिमों पर।


और यह चुप्पी ही आज भारत के लोकतंत्र और उसके कथानक की सबसे बड़ी चुनौती है।