बिहार में चुनाव नहीं, इंजीनियरिंग हुई—और चुप्पी ही इसकी सबसे बड़ी स्वीकृति है।”
लखनऊ डेस्क प्रदीप shukla
“बिहार में चुनाव नहीं, इंजीनियरिंग हुई—और चुप्पी ही इसकी सबसे बड़ी स्वीकृति है।”
बिहार में लोकसभा उपचुनावों और विधानसभा उपचुनावों के बाद जो तस्वीर उभरकर सामने आई है, वह सिर्फ एक तर्जनी पर लगे दो स्याही के निशानों की कहानी नहीं है। यह उस पूरे चुनावी ढांचे पर उंगली उठाती है, जिसे भारतीय लोकतंत्र का सबसे पवित्र उपकरण कहा जाता है। लेकिन अब यह उपकरण अक्सर पवित्रता से ज्यादा प्रयोजनीयता के लिए इस्तेमाल होता दिख रहा है।
## शाम्भवी की दो उंगलियाँ—ग़लती, चालाकी या ‘नया नॉर्मल’?
शाम्भवी चौधरी की दोनों उंगलियों पर स्याही के निशान ने जब विवाद खड़ा किया, तो प्रशासन ने इसे मानवीय भूल कहकर हल्का करने की कोशिश की। लेकिन जिस देश में विपक्ष के किसी नेता की मामूली चूक को भी कई दिनों तक प्राइम टाइम की आग में झोंका जाता हो, वहां सत्ताधारी खेमे से जुड़ी ऐसी घटना पर यह नरमी सिर्फ एक चीज़ की ओर संकेत करती है— "चुनावी ईमानदारी का मूल्य अब हाथों की स्याही से नहीं, राजनीतिक पहचान से तय होता है।"
## वंशवाद + अपरिपक्वता: नई राजनीति का पैकेज डील
शाम्भवी चौधरी इस दौर की उस राजनीति की प्रतीक हैं, जिसमें वंशवाद को “मेधावी अवसर” और अनुभवहीनता को “युवा नेतृत्व” नाम दिया जाता है। लेकिन यहाँ असली प्रश्न यह है कि— एक सांसद को भी यदि यह पता न हो कि स्याही किस हाथ पर लगती है, तो यह लोकतंत्र की पढ़ाई में कमी है या सत्ता की गारंटी के विश्वास से उपजी लापरवाही?
भले ही उन्होंने एक ही बार वोट दिया हो, लेकिन दृश्य ऐसा बना जिसने पूरे चुनाव को एक सवाल में बदल दिया— क्या गलती वोट की थी या सिस्टम पहले से तय था?
## मीडिया का खेल: विपक्ष हार जाए तो दोष राहुल का, जीत जाए तो श्रेय मोदी का
राहुल गांधी पर जिस तरह हार का ठीकरा फोड़ा जा रहा है, वह भारतीय चुनावी नैरेटिव की सबसे सुविधाजनक परंपरा है। इसे एक वाक्य में यूँ कहा जा सकता है— “भारत में चुनावी विश्लेषण का सबसे आसान सूत्र है: परिणाम जैसा भी हो, कहानी अंत में ‘राहुल की नाकामी’ पर ही खत्म होती है।”
यह तथ्य कि बिहार में महागठबंधन कई पार्टियों का गठजोड़ था, कि राहुल अकेले चेहरा नहीं थे, कि रणनीति में कई और कारक थे—यह सब जानकारी की भीड़ में कहीं खो जाता है। मीडिया को ‘मोदी बनाम कोई’ चाहिए, और ‘कोई’ के लिए उन्हें राहुल गांधी ही सबसे सुविधाजनक दिखते हैं।
## लेकिन असली मुद्दा किसी नेता की छवि नहीं—चुनाव की विश्वसनीयता है
बिहार चुनाव में ऐसे प्रश्न उठे जो किसी भी लोकतंत्र को शर्मसार कर देने के लिए पर्याप्त हैं—
● मतदाता सूची से 62 लाख नाम हटे, फिर 20 लाख जोड़े गए, जिनमें 5 लाख बिना आवेदन फॉर्म के।
● चुनाव घोषणा के दिन मतदाता संख्या 7.42 करोड़, चुनाव के बाद 7.45 करोड़—3 लाख का अंतर!
● मतदान के दौरान सीसीटीवी बंद होने के कई मामले।
● महिलाओं को बीच चुनाव 10–10 हजार रुपये देना—यह कल्याणकारी योजना थी या चुनावी रिश्वत?
● पर्यवेक्षकों में गुजरात काडर की असामान्य बहुलता।
● भाजपा नेताओं द्वारा एक से अधिक वोट डालने के आरोप।
ये सिर्फ विसंगतियाँ नहीं हैं। यह चुनावी प्रक्रिया के प्रति एक व्यवस्थित निर्लज्जता का परिचय है। और यही वजह है कि राहुल गांधी द्वारा वोट चोरी का मुद्दा उठाने से सत्ता पक्ष असहज है। क्योंकि यदि यह विमर्श मजबूत हुआ तो पूरे चुनावी तंत्र को कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा।
## विपक्ष की असली समस्या: चुनाव हराना नहीं, चुनाव लड़ पाना है
2024 के बाद से जिस दिशा में भारतीय राजनीति बढ़ी है, वह एक साफ़ पैटर्न दिखाती है— विपक्ष की हार नियति नहीं, प्रक्रिया है।
नैरेटिव, प्रशासन, मीडिया, चुनावी मशीनरी, सुरक्षा बल—हर मोर्चे पर सत्ता का प्रभाव इतना गाढ़ा हो चुका है कि विपक्ष की जीत अब सिर्फ राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि संस्थागत असमानताओं के खिलाफ लड़ाई है। और इसीलिए राहुल गांधी सत्ता के लिए नहीं, लोकतंत्र की परिभाषा के लिए खतरा माने जा रहे हैं।
बिहार चुनाव सिर्फ एक राज्य का चुनाव नहीं था। यह उस भविष्य का पूर्वाभ्यास था, जिसमें चुनाव एक रिवाज तो रहेंगे, लेकिन विश्वास नहीं।
जो कुछ बिहार में हुआ, उसे दो शब्दों में समेटा जा सकता है— “सहूलियत-आधारित लोकतंत्र।” और इसीलिए— “बिहार में चुनाव नहीं, "इंजीनियरिंग" हुई—और चुप्पी ही इसकी सबसे बड़ी स्वीकृति है।”
