राजधानी में बारूद और सत्ता का पलायन: आंतरिक सुरक्षा पर एक क्रूर हास्य

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


राजधानी में बारूद और सत्ता का पलायन: आंतरिक सुरक्षा पर एक क्रूर हास्य

लाल किले के पास हुआ कार बम धमाका, जिसमें कम से कम 13 निर्दोष लोग मारे गए, महज़ एक आतंकी हमला नहीं है; यह देश की आंतरिक सुरक्षा प्रणाली की एक शर्मनाक पराजय है। यह घटना दर्शाती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभाल रहे तंत्र की प्राथमिकताएँ और उसके नेतृत्व की जवाबदेही आज शून्य के स्तर पर है। जिस समय देश की राजधानी लहूलुहान थी, प्रधानमंत्री की अगली सुबह की प्राथमिकता भूटान के राजा का जन्मदिन समारोह और विश्वशांति के लिए प्रार्थना थी। इस विसंगति को केवल 'क्रूर हास्य' कहा जा सकता है।

I. राजनैतिक परिप्रेक्ष्य: जवाबदेही का पतन और प्रचार की राजनीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिल्ली में रहते हुए, अगली सुबह भूटान प्रस्थान कर जाना और वहाँ की धरती से "षडयंत्रकारियों को बख्शा नहीं जाएगा" का दावा करना, राजनीतिक जवाबदेही की सबसे निम्नतम अवस्था है।

"मुंबई हमले के बाद इस्तीफ़ा था, दिल्ली धमाके के बाद सिर्फ़ 'भारी मन' और भूटान यात्रा। देश ने जिम्मेदारी ली नहीं, बल्कि उसे विदेशी ज़मीन पर निर्यात कर दिया।"


 प्राथमिकताओं का विरोधाभास: पुलवामा के समय जिम कॉर्बेट, पहलगाम के समय सऊदी अरब, और दिल्ली धमाके के बाद भूटान। यह स्पष्ट करता है कि प्रधानमंत्री के लिए देश की आपदा से ज़्यादा ज़रूरी विदेश यात्राओं का प्रचार है, जिसे 'ऊर्जा साझेदारी' जैसे दिखावटी कारणों से ढका जा रहा है।

 जब देश में आपदा आती है, तो प्रधानमंत्री आपदा स्थल का दौरा करने के बजाय, ट्रेन को हरी झंडी दिखाने, मन की बात करने या विदेश यात्रा करने जैसे प्रचार-उन्मुख कार्य करते हैं, जिनमें उनकी तस्वीर और वीडियो सामने आते हैं।

 अडानी और भूटान कनेक्शन: भूटान में हो रहे जलविद्युत परियोजनाओं (पुनात्सांगचू-दो) के उद्घाटन के बीच, कुछ महीने पहले गौतम अडानी की कंपनी द्वारा वहाँ 6,000 करोड़ रुपये के निवेश का समझौता करना महज़ संयोग नहीं हो सकता। देश के पास ऊर्जा मंत्री होते हुए भी, प्रधानमंत्री का इस समझौते के लिए जाना, सरकारी नीतियों और निजी कॉरपोरेट हितों के बीच के अपारदर्शी गठजोड़ को संदेह के घेरे में लाता है।

इस्तीफ़े की रवायत खत्म: एक दौर था जब मुंबई हमले के बाद कांग्रेस ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए गृहमंत्री, मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का इस्तीफा लिया था। आज, गृहमंत्री अमित शाह के कार्यकाल में चार-पाँच बड़े आतंकी हमले (पहलगाम, रियासी, एर्नाकुलम, राजौरी) हो चुके हैं, बावजूद इसके, उन्होंने कायदे से इस्तीफ़े की पेशकश तक नहीं की है।

II. आंतरिक सुरक्षा: विफलता की शृंखला और गंभीर सवाल

ये आतंकी हमले प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की नाकामी को दर्शाने के लिए काफी हैं।

"लाल किले के पास बारूद फटा, और हमारे मुखिया जी 'विश्वशांति' की प्रार्थना करने निकल गए। यह क्रूर हास्य नहीं, सुरक्षा पर सत्ता का 'पलायनवाद' है।"

 खुफिया विफलता (Intelligence Failure): दिल्ली के व्यस्ततम इलाके में इतना बड़ा कार बम धमाका होना—और इससे पहले 2900-3000 किलो विस्फोटक सामग्री का दिल्ली-एनसीआर तक पहुँचना—केवल नाकामी नहीं है, यह दिखाता है कि खुफिया तंत्र पूरी तरह से पंगु हो चुका है।

 नोटबंदी का झूठ: 2016 में नोटबंदी करते समय दावा किया गया था कि इससे आतंकवाद पर लगाम लगेगी। आठ-नौ साल बाद, दिए गए आँकड़े (जम्मू-कश्मीर में 2200+ आतंकी घटनाएँ) इस दावे को पूरी तरह झुठलाते हैं।

"नोटबंदी से आतंकवाद ख़त्म नहीं हुआ, उल्टा राजधानी तक 3000 किलो विस्फोटक पहुँच गया। इंटेलिजेंस फेलियर नहीं, यह सुरक्षा तंत्र का आधिकारिक 'घुटने टेक देना' है।"

 गंभीरता का अभाव: चेहरे की भाव भंगिमा बदलकर कुछ कड़े शब्दों में भूटान से भाषण दे देने से आतंकवाद जैसी गंभीर समस्या नहीं सुलझेगी। इसके लिए विशेषज्ञों की सलाह से दीर्घकालिक, रणनीतिक और एकांत में बनाई गई नीतियाँ चाहिए, न कि कैमरे के सामने प्रचार।

III. सामाजिक और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य

 पीड़ितों का अपमान: 'भारी मन से गया हूँ' जैसे जुमले पीड़ितों के दुःख का उपहास करते हैं। जब नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार का प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्य है, तो आपदा के समय प्रचार को प्राथमिकता देना संवैधानिक दायित्वों की उपेक्षा है।

 आतंकवाद का राजनीतिकरण: आतंकवाद जैसी गंभीर समस्या को 'हिन्दू-मुसलमान' करने का मौका बनाना, समाज में विभाजन और धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देता है। यह वह राजनीतिक हथियार है जिसका उपयोग सरकार अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के लिए करती रही है।

हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि पीड़ितों को सच में न्याय मिले। लेकिन यह तभी संभव है जब सत्ता बहाने और प्रचार का पर्दा हटाकर, अपनी नाकामी की जिम्मेदारी ले और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक गंभीर, दीर्घकालिक नीति बनाए।

"गृहमंत्री का काम आतंकियों को पकड़ना था, अब वे सिर्फ़ मीटिंग ले रहे हैं। नैतिक जवाबदेही का आलम यह है कि इस्तीफ़ा माँगना भी देश भूल चुका है!"