जब आंकड़े भी राजनीति बन जाएँ — गृहमंत्री जी के ट्वीट का सच।

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

जब आंकड़े भी राजनीति बन जाएँ — गृहमंत्री जी के ट्वीट का सच

– झूठ की मजबूरी या जवाबदेही से बचने की रणनीति?

भाजपा अब ऐसी फैक्ट्री बन गई है — जहाँ सच की नहीं, ‘सर्टिफाइड झूठ’ की पैकेजिंग होती है।

केंद्रीय गृहमंत्री के आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से हाल ही में एक ऐसा ट्वीट किया गया जिसने सोशल मीडिया पर खलबली मचा दी। ट्वीट में कहा गया कि 2011 में मुसलमानों की आबादी 14.2% थी जो अब बढ़कर 24.6% हो गई है, और यह वृद्धि कथित तौर पर “घुसपैठियों” के कारण हुई है। कुछ ही घंटे बाद आलोचना बढ़ी तो ट्वीट हटा दिया गया।

लेकिन सवाल उठता है — अगर यह केवल एक “डेटा एरर” थी, तो फिर गृहमंत्री जी का वही बयान सार्वजनिक मंचों पर बार-बार क्यों दोहराया गया?

सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि 2011 में जनगणना हुई थी, पर 2021 की जनगणना अब तक हुई ही नहीं। तो फिर यह 24.6% का आंकड़ा आया कहां से? क्या देश की जनगणना अब मंत्रालय के ट्वीट से होगी?

दूसरा सवाल और भी बड़ा है — गृहमंत्री जी का वही मंत्रालय देश की सीमाओं की सुरक्षा का जिम्मेदार है। जब 2014 से लेकर आज तक केंद्र में भाजपा की सरकार है, तो अगर घुसपैठ इतनी बढ़ी है, तो जिम्मेदारी किसकी बनती है?

भाजपा का दावा है कि देश में 2 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं, और यही कांग्रेस का वोट बैंक हैं।

पर सरकार के अपने आँकड़े कुछ और कहते हैं —

2015 से 2024 तक कुल 1988 घुसपैठियों को ही देश से बाहर भेजा गया। जबकि 2013 में कांग्रेस शासन के दौरान अकेले एक साल में 5224 घुसपैठियों को निकाला गया था। यानी झूठे आंकड़ों से डर फैलाने की कोशिश ज़्यादा है, और काम का हिसाब कम।

जब झूठ ही नॉरेटिव बन जाए, तो सच भी साजिश लगने लगता है — यही आज की सियासत की सबसे बड़ी त्रासदी है।

अब ज़रा इतिहास की ओर देखें —

भारत की आज़ादी के बाद हर जनगणना में हिंदू और मुस्लिम आबादी दोनों में समान अनुपात से वृद्धि हुई है।

1951 में हिंदू आबादी 30.4 करोड़ और मुस्लिम 3.4 करोड़ थी।

2011 में हिंदू 96.6 करोड़ और मुस्लिम 17.2 करोड़।

2011 तक मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर महज़ 11% थी — यानी राष्ट्रीय औसत के आसपास।

ऐसे में सवाल सीधा है — अगर 2011 में मुस्लिम आबादी 14.2% थी और 2024 में आप कह रहे हैं कि यह 24.6% हो गई, तो फिर इन 11 सालों में गृह मंत्रालय क्या कर रहा था? क्यों नहीं रोकी गई वह कथित “घुसपैठ” जिसके नाम पर इतना शोर मचाया गया?

सच्चाई यह है कि आंकड़ों का यह खेल जनता की आँखों में धूल झोंकने का प्रयास है। जब सरकार का तंत्र जवाबदेही से भागता है, तब आंकड़े ही उसका हथियार बन जाते हैं। सत्ता झूठ बोलती है, आईटी सेल उसे amplifiy करती है, और मीडिया का एक हिस्सा उसे headline बना देता है। यही है आज की राजनीति का “डिजिटल राष्ट्रवाद” — जो डेटा नहीं, डर पर चलता है।

जो सरकार अपने ही आँकड़ों से डरती है, उसे जनता से नहीं, सच्चाई से डर लगता है।