चुनाव आयोग पर उठे गंभीर सवाल : क्या लोकतंत्र की आत्मा ही खतरे में है?
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
चुनाव आयोग पर उठे गंभीर सवाल : क्या लोकतंत्र की आत्मा ही खतरे में है?
राहुल गांधी की हालिया प्रेस कॉन्फ्रेंस केवल एक दलगत आरोप नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र के हृदय को चीरने वाली सच्चाई को उजागर करती है। कर्नाटक के अलंद विधानसभा क्षेत्र में 6000 से अधिक मतदाताओं के नाम बगैर उनकी जानकारी और सहमति के मतदाता सूची से काट दिए जाना कोई सामान्य तकनीकी त्रुटि नहीं, बल्कि एक सुनियोजित आपराधिक षड्यंत्र है।
सवाल यह है कि जब सीआईडी ने 13 बार केंद्रीय चुनाव आयोग से यह जानना चाहा कि शिकायत किस फोन और किस ओटीपी के आधार पर स्वीकार हुई, तो आखिर चुनाव आयोग ने 13 महीनों तक चुप्पी क्यों साधे रखी? अगर वोट किसी फोन से डिलीट नहीं होते, तो फिर डाटा देने में इतनी झिझक क्यों? लोकतंत्र में पारदर्शिता का अभाव ही भ्रष्टाचार और षड्यंत्र का सबसे बड़ा हथियार है।
राहुल गांधी ने इस षड्यंत्र को और गहराई से समझाया कि मतदाता सूची में जिस पेज से नाम काटे गए, उसी पेज का पहला मतदाता "शिकायतकर्ता" बना दिया गया। यह संयोग नहीं, बल्कि किसी सॉफ़्टवेयर की हैकिंग और डेटा-मैनेजमेंट की साजिश का साफ़ सबूत है।
अब सवाल केवल कांग्रेस या किसी खास विधानसभा सीट का नहीं है। यह मसला भारत की लोकतांत्रिक आत्मा का है। जब जनता का वोट ही चोरी हो जाए, तो फिर संसद और विधानसभाओं की वैधता किस आधार पर बचेगी?
बीजेपी की भूमिका भी यहां सवालों के घेरे में है। यदि चुनाव आयोग पर उठे आरोप झूठे हैं, तो सबसे पहले सत्ता पक्ष को पारदर्शिता की मांग करनी चाहिए। लेकिन इसके बजाय "राहुल गांधी को संविधान की समझ नहीं है" जैसे खोखले तंज कसना यह साबित करता है कि कहीं न कहीं आग ज़रूर लगी है।
आज लोकतंत्र का असली संकट यही है कि जिस संस्था पर जनता का सबसे बड़ा भरोसा है — चुनाव आयोग — वही अगर संदिग्ध हो जाए, तो जनता के पास विश्वास करने के लिए बचता ही क्या है? लोकतंत्र केवल संविधान की किताबों में नहीं, बल्कि मतदान की पर्चियों और जनता के भरोसे में सांस लेता है।
राहुल गांधी ने जो अल्टीमेटम दिया है कि “चुनाव आयोग 7 दिन में डाटा दे या माफी मांगे” — यह केवल कांग्रेस का बयान नहीं, बल्कि हर उस भारतीय की पुकार है जो मानता है कि वोट उसका अधिकार ही नहीं, बल्कि उसकी अस्मिता है।