मीडिया का न्यू इंडिया संस्करण : लोकतंत्र का दरबारी तमाशा

लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला


मीडिया का न्यू इंडिया संस्करण : लोकतंत्र का दरबारी तमाशा

भारत का मीडिया आज लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं, बल्कि सत्ता के सिंहासन का चौथा पायदान बन चुका है। जिन हाथों में कल कलम थी, वे आज रिमोट कंट्रोल थामे बैठे हैं और जिन होंठों से कभी जनता की पीड़ा पुकार बनकर निकलती थी, वहीं आज सत्ताधीशों के भजन सुनाई देते हैं।

न्यू इंडिया की पत्रकारिता का सच बड़ा निर्मम है—

एंकर अब सवाल नहीं पूछते, बल्कि सवाल पूछने वालों को कटघरे में खड़ा करते हैं।

 बहसें अब मुद्दों पर नहीं, बल्कि “कौन ज़्यादा भक्त” की प्रतियोगिता बन चुकी हैं।

चैनल अब खबरें नहीं दिखाते, बल्कि सत्तारूढ़ दल का चुनावी घोषणापत्र पढ़ते हैं।

आज की मीडिया बुलेटिन देख लीजिए—

राहुल गांधी अगर प्रेस कॉन्फ्रेंस में चुनाव आयोग पर सवाल उठाएं तो हेडलाइन होगी “राहुल गांधी का सनसनीखेज हमला, लेकिन क्या उन्हें संविधान समझ आता है?”

प्रधानमंत्री अगर “हाइड्रोजन बम” की बात करें, तो अगले दिन हर अख़बार में बैनर लाइन होगी “भारत ने दिखाया दम, अब दुनिया डरेगी”।

यानी खबर का मतलब अब सच नहीं, बल्कि सत्ता की सुविधा है।

मीडिया का यह पतन महज़ पेशेवर लापरवाही नहीं है, यह सुनियोजित अपराध है।

क्योंकि—

 जब बेरोजगार नौजवान अपनी जान दे रहा हो और चैनल्स उसे जगह न देकर प्रधानमंत्री की रैली लाइव दिखाएं, तो यह अपराध है।

जब किसान सड़क पर आत्मदाह कर ले और अखबार उसके दर्द को अंदर के छोटे कॉलम में छापकर पहले पन्ने पर सरकार के विज्ञापन चिपकाएं, तो यह अपराध है।

जब पत्रकार सत्ता के भ्रष्टाचार को दबाकर विपक्ष की छोटी-सी चूक को तोप बना दें, तो यह अपराध है।

दरअसल, यह “न्यू इंडिया का मीडिया” जनता का नहीं, सत्ता का दरबारी है।

जिस लोकतंत्र की बुनियाद जनमत पर खड़ी है, उसी जनमत को भटकाने का ठेका आज मीडिया ने ले लिया है। यह लोकतंत्र का प्रहरी नहीं, लोकतंत्र का दलाल बन चुका है।

इतिहास गवाह है—

ब्रिटिश हुकूमत ने जब प्रेस को कुचलने की कोशिश की, तब भी ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ और ‘अमृत बाजार पत्रिका’ जैसे अखबारों ने अपनी रीढ़ सीधी रखी। इमरजेंसी के समय जब सेंसरशिप थोपी गई, तब भी बहुत से पत्रकारों ने जेल जाना मंजूर किया लेकिन कलम को गुलाम नहीं बनाया।

और आज?

आज तो बिना सेंसरशिप के ही मीडिया ने अपनी आत्मा बेच दी। यह चाटुकारिता स्वेच्छा से अपनाई गई है। यह परजीवी पत्रकारिता है—जो सत्ता के खून से पल रही है।

👉 मीडिया वाले यह भूल न करें कि जनता की याददाश्त छोटी हो सकती है, लेकिन लोकतंत्र की अदालत लंबी चलती है।

कल जब इतिहास लिखा जाएगा, तो यह दौर भारत की पत्रकारिता का सबसे शर्मनाक अध्याय कहलाएगा। वहां लिखा होगा— “जब जनता भूखी थी, मीडिया सत्ता के दरबार में नाच रहा था।”