वोट चोरी का आरोप और पहले पन्ने की राजनीति
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
वोट चोरी का आरोप और पहले पन्ने की राजनीति
✍️ "जब अख़बार सत्ता की सुर्ख़ियाँ बेचने लगें, तो लोकतंत्र की स्याही काली पड़ जाती है।"
लोकतंत्र में चुनाव आयोग का स्थान सर्वोच्च निष्पक्ष संस्था का है। वही संस्था यदि मतदाता सूची से नाम काटने और वोट चोरी की साज़िश पर आंख मूँद ले तो सवाल सिर्फ़ किसी दल विशेष का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का हो जाता है। कांग्रेस सांसद और विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने जब मुख्य चुनाव आयुक्त पर सीधे-सीधे "वोट चोरों को बचाने" का आरोप लगाया तो यह केवल एक राजनीतिक बयान नहीं था, बल्कि लोकतांत्रिक संरचना पर गंभीर प्रश्नचिह्न था।
# आरोप और साक्ष्य
राहुल गांधी ने कहा कि कर्नाटक सीआईडी ने चुनाव आयोग को 18 पत्र लिखे, जिनमें मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर नाम काटने की साज़िश के सबूत थे, लेकिन चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की। यह वही आरोप है जिसे उन्होंने "चुनाव आयोग खुद वोट चोरों की मशीन बन गया है" जैसी तीखी भाषा में रखा। यदि यह आरोप झूठे हैं तो आयोग को तुरंत खंडन करना चाहिए, और यदि इनमें तथ्य है तो जवाबदेही तय करनी होगी। परंतु, अब तक की चुप्पी बेहद असहज और संदिग्ध है।
✍️ "जब अख़बार आईना नहीं, परदा बन जाए, तब लोकतंत्र की तस्वीर धुंधली पड़ जाती है।"
# मीडिया की भूमिका : सच्चाई से परे प्राथमिकताएं
आश्चर्यजनक रूप से, इतनी गंभीर बात को भी भारतीय मीडिया ने अपने-अपने चश्मों से देखा। द हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस ने आरोपों को पहले पन्ने पर लीड या प्रमुख स्थान दिया और विस्तार से समझाया। वहीं, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने इसे अधपन्ने पर धकेल दिया, या फिर आधे-अधूरे कॉलम में पेश किया। टेलीग्राफ ने इसे गंभीरता से उठाया, लेकिन कुछ अखबारों ने सत्तापक्ष की प्रतिक्रियाओं को अधिक महत्व देकर मूल मुद्दे को गौण बना दिया।
यहाँ सवाल उठता है—क्या मीडिया का काम केवल "किसने क्या कहा" छापना है, या आरोप की गहराई तक जाकर जनता को सचेत करना भी उसका धर्म है? जब आरोप "चुनाव आयोग" जैसी संस्था पर हों, तो पत्रकारिता की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। लेकिन कुछ अखबारों ने इसे मात्र राजनीतिक बयानबाज़ी की तरह प्रस्तुत कर दिया।
✍️ "जहाँ कलम बिके, वहाँ सच का गला घुटता है।"
# विज्ञापन बनाम पत्रकारिता
मीडिया की इस भूमिका में आर्थिक दबाव भी साफ़ झलकता है। बड़े अखबारों के पहले पन्ने पर सरकार या कॉरपोरेट विज्ञापनों की भरमार रहती है। ऐसे में विपक्ष की गम्भीर आवाज़ अक्सर अधपन्ने या छोटे कॉलम में सिमट जाती है। यह प्रवृत्ति सिर्फ़ पाठकों से सच्चाई छिपाती ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र को भी खोखला करती है।
✍️ "अगर खबर विज्ञापन की गुलाम हो जाए, तो लोकतंत्र यतीम हो जाता है।"
# संस्थाएँ और जवाबदेही
आज स्थिति यह है कि विपक्ष का नेता जब चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान पर गंभीर आरोप लगाता है तो मीडिया उसे पूरे संदर्भ के साथ जनता तक पहुँचाने की बजाय सत्ता और संस्थाओं के बचाव का मंच बन जाता है। इससे दोहरी हानि होती है—एक ओर संस्थाओं पर जनता का विश्वास टूटता है, दूसरी ओर मीडिया की निष्पक्षता पर।
राहुल गांधी के आरोप सही हैं या गलत—यह भविष्य की जांच बताएगी। लेकिन यह तय है कि मीडिया का रवैया न केवल संदिग्ध रहा बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की साख पर भी प्रश्न उठाता है। सत्ता बदलती रहती है, पर लोकतंत्र की मजबूती जनता के विश्वास पर टिकी होती है। यदि मीडिया भी संस्थाओं की तरह सत्ता का प्रवक्ता बन जाए तो जनता की आवाज़ कौन बनेगा?
✍️ "सत्ता की गोद में बैठा मीडिया जनता की आँखों से पट्टी बाँध देता है।"
इस सवाल का जवाब हमें सिर्फ़ अख़बारों की सुर्खियों में नहीं, बल्कि उनके संपादकीय साहस में तलाशना होगा। क्योंकि याद रखिए—लोकतंत्र में सच को दबाकर रखा जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता।