नवरात्रि : शक्ति, साधना और आत्मबोध का महापर्व
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
नवरात्रि : शक्ति, साधना और आत्मबोध का महापर्वभारत की सांस्कृतिक परंपरा में पर्व केवल उत्सव नहीं होते, बल्कि वे मानव जीवन को दिशा देने वाली साधना-पद्धतियाँ भी हैं। इन्हीं में से एक है नवरात्रि, जो शक्ति-आराधना का महान उत्सव है। लोकजीवन में इसे सामान्यत: दो रूपों में जाना जाता है—चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र। किंतु वस्तुतः हमारे चंद्र कैलेंडर में चार नवरात्रियाँ होती हैं—माघ, चैत्र, आषाढ़ और आश्विन।
# ऋतु और नवरात्रि का सामंजस्य
ऋतु-परिवर्तन केवल वातावरण का बदलाव नहीं, बल्कि मानव शरीर और चेतना पर भी गहरा प्रभाव डालता है। इसी संधि-काल को साधना के लिए उपयुक्त माना गया।
चैत्र नवरात्र – वसंत की नई कोंपलें और जीवन का पुनर्जन्म।
आषाढ़ नवरात्र – गुप्त साधना का समय, योगियों और तपस्वियों का प्रिय।
आश्विन नवरात्र – शक्ति और ऊर्जा का चरम।
माघ नवरात्र – अंतर्मुखी होकर आत्मशुद्धि का अवसर।
लोकमान्य परंपरा में चैत्र और आश्विन नवरात्र अधिक महत्व रखते हैं, क्योंकि यह समय शारीरिक और मानसिक ऊर्जा के उद्भव का होता है।
# "नवरात्रि" का अर्थ और दार्शनिक संकेत
"नवरात्रि" का शाब्दिक अर्थ है — नौ रात्रियों का समूह।
यहाँ "रात्रि" अंधकार का प्रतीक नहीं है, बल्कि विश्राम, शांति और जगदम्बा का द्योतक है।
इस प्रकार नवरात्र का सार यह है कि – नौ दिनों की साधना से साधक अपने भीतर के अंधकार को हटाकर दिव्य प्रकाश की ओर बढ़े।
# नौ देवियाँ : साधक की आंतरिक यात्रा
नवरात्रि की प्रत्येक देवी केवल पूजन की प्रतिमा नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक आयाम का प्रतीक है—
1. शैलपुत्री – संकल्प और अडिगता।
2. ब्रह्मचारिणी – तप और संयम।
3. चन्द्रघण्टा – मन की शुद्धि और सामंजस्य।
4. कूष्माण्डा – सृजन और आंतरिक ज्योति।
5. स्कन्दमाता – करुणा और मातृत्व।
6. कात्यायनी – विकारों पर विजय।
7. कालरात्रि – भय और अज्ञान का संहार।
8. महागौरी – निर्मलता और शुद्धता।
9. सिद्धिदात्री – परम सिद्धि और आत्मबोध।
👉 इस क्रम में साधक बाहरी जगत से भीतर की यात्रा करता हुआ अंततः ब्रह्म से एकत्व की ओर अग्रसर होता है।
# आठ माताएँ और आठ असुरी शक्तियाँ
पुराणों और तंत्रशास्त्र में आठ माताओं और आठ दैत्य प्रवृत्तियों का उल्लेख मिलता है।
माताएँ — ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री और चामुण्डा।
असुरी प्रवृत्तियाँ — मोह (महिषासुर), काम (रक्तबीज), क्रोध (धूम्रलोचन), लोभ (सुग्रीव), मद-मात्सर्य (चण्ड-मुण्ड), राग-द्वेष (मधु-कैटभ), ममता (निशुम्भ), अहंकार (शुम्भ)।
यह संकेत है कि नवरात्र केवल देवी-पूजन नहीं, बल्कि साधक के भीतर की आसुरी प्रवृत्तियों का संहार भी है।
# नवमी का रहस्य
भारतीय अंकज्ञान में नौ (9) संख्या को पूर्णता का प्रतीक माना गया है।
आठ तक मायिक सृष्टि का विस्तार है।
नौवें पर आत्मा और ब्रह्म का मिलन होता है।
इसीलिए नवमी तिथि पर देवी की आराधना का भाव है— "साधक अपने भीतर की सीमाओं को पार कर परमात्मा में लीन हो जाए।"
# तांत्रिक दृष्टि
तंत्रशास्त्र में तीन विशेष रात्रियों का उल्लेख है—
1. कालरात्रि – विनाश और परिवर्तन।
2. मोहरात्रि – अज्ञान का नाश।
3. महारात्रि – परमात्मा का साक्षात्कार।
इनसे स्पष्ट होता है कि नवरात्र केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूपांतरण की साधना है।
# सामाजिक परिप्रेक्ष्य
नवरात्रि भारतीय समाज में केवल आस्था नहीं, बल्कि सामूहिक एकजुटता और सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है।
दुर्गा पूजा, गरबा, डांडिया, जागरण—ये सभी सामूहिकता को बढ़ाते हैं।
ग्रामीण और शहरी दोनों समाजों में यह पर्व स्त्रियों की शक्ति और सम्मान का प्रतीक बनकर उभरता है।
यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि दुर्गुणों का नाश और सद्गुणों की स्थापना केवल देवताओं की नहीं, मानव की भी जिम्मेदारी है।
नवरात्रि का सार यही है कि—
यह केवल भक्ति का पर्व नहीं,
बल्कि साधना की यात्रा है।
इस यात्रा में साधक अंधकार से प्रकाश की ओर, आसुरी प्रवृत्तियों से दैवी शक्तियों की ओर और सीमित आत्मा से अनंत ब्रह्म की ओर अग्रसर होता है।
यही कारण है कि नवरात्रि आज भी केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि मानव जीवन को ऊर्जावान, शुद्ध और शक्तिशाली बनाने वाली सांस्कृतिक साधना है।