बरसात का आईना और हमारी बदहाल व्यवस्था

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

बरसात का आईना और हमारी बदहाल व्यवस्था

सोमवार रात गुरुग्राम की सड़कों पर 20 किलोमीटर लंबा जाम सिर्फ़ ट्रैफ़िक की समस्या नहीं थी, बल्कि उस पूरे शहरी मॉडल का आईना था, जिसे हमने पिछले तीन दशकों में विकास का पर्याय मान लिया है। ऊँची इमारतें, चमचमाते मॉल और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऑफिस—ये सब मिलकर एक “ग्लोबल सिटी” का भ्रम रचते हैं। लेकिन बारिश की कुछ बूंदें ही उस भ्रम को चकनाचूर कर देती हैं। पाँच-छह घंटे तक अपनी गाड़ियों में फंसे लोग न तो घर पहुँच सके, न ही ऑफिस लौट पाए। सवाल है—क्या यही है स्मार्ट सिटी का वादा?

 जिम्मेदारी किसकी?

भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने इसे कांग्रेस काल की योजना और भ्रष्टाचार का परिणाम बता दिया। लेकिन सवाल उठता है कि पिछले 11 वर्षों से केंद्र और हरियाणा में भाजपा की ही सरकार है। अगर गुड़गाँव भ्रष्टाचार की बुनियाद पर खड़ा था, तो अब तक उस नींव को बदलने का प्रयास क्यों नहीं हुआ? क्या केवल नाम बदलने और बुलडोज़र चलाने की राजनीति से शहर सुधर जाएगा?

 पूरे देश का हाल

गुरुग्राम या दिल्ली ही क्यों—बारिश आते ही भारत के हर छोटे-बड़े शहरों का यही हाल होता है। कहीं सड़कें तालाब बन जाती हैं, कहीं पुल बह जाते हैं। असल कारण यह है कि सरकारें शहर प्रबंधन की बारीकियों में कभी दिलचस्पी नहीं लेतीं। उन्हें सौंदर्यीकरण और “विश्वस्तरीय शहर” के सपनों में ज़्यादा मज़ा आता है, क्योंकि वहाँ ठेकेदारी और कमीशन की गुंजाइश रहती है।

 पहाड़ों से मैदान तक आपदा

उत्तराखंड और हिमाचल जैसे राज्यों में स्थिति और भयावह है। भूस्खलन, बाढ़ और बादल फटने की घटनाएँ अब सालाना त्रासदी बन चुकी हैं। बच्चों के स्कूल जाने के रास्ते बह चुके हैं, परीक्षाओं के दिन नज़दीक हैं, पर उनकी पढ़ाई ठप है। किसानों की ज़मीनें और घर मलबे में दब रहे हैं।

पंजाब में सतलुज और व्यास जैसी नदियाँ बांधों से छोड़े गए पानी से उफान पर हैं। गाँव जलमग्न हो चुके हैं, लोग छतों पर मवेशियों के साथ रह रहे हैं। इस आपदा में भी लूटमार और मुनाफाखोरी हो रही है—पॉलीथीन शीट, पीने का पानी, ज़रूरी सामान—सबकी कीमत दोगुनी-तिगुनी कर दी गई है।

 जलवायु परिवर्तन : बहाना या चेतावनी?

सत्ता में बैठे लोग जलवायु परिवर्तन को दोष देकर पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जलवायु परिवर्तन केवल भारत में नहीं हो रहा, पूरी दुनिया झेल रही है। फर्क यह है कि विकसित देशों ने अपने बुनियादी ढांचे को मज़बूत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बनाया है, जबकि हमने राजनीतिक दबाव और भ्रष्टाचार में अपनी नींव खोखली कर ली। अंग्रेजों की बनाई सड़कें और इमारतें आज भी सुरक्षित हैं, जबकि हमारे नए बने पुल और राजमार्ग पहली ही बारिश में टूट जाते हैं।

रास्ता क्या है?

बरसात भारत के लिए अभिशाप नहीं, वरदान हो सकती है—अगर उसके जल को संरक्षित कर लिया जाए। वर्षा जल संचयन, वैज्ञानिक नगर नियोजन और पारदर्शी प्रशासन ही हमें इस चक्रव्यूह से निकाल सकते हैं। लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए।

आज की हकीकत यह है कि गुरुग्राम का जाम और पहाड़ों का भूस्खलन, पंजाब के जलमग्न गाँव और गरीबों की टूटी झोपड़ियाँ—सब एक ही कहानी कहते हैं। यह कहानी है नजरअंदाज़ किए गए इंफ्रास्ट्रक्चर, ठेकेदारी राजनीति और जनता की चुप्पी की। जब तक नागरिक अपने अधिकारों का हिसाब नहीं मांगेंगे, और जब तक सत्ता आम जनता के हितों की रक्षा करने के बजाय केवल अपने हित साधती रहेगी—हर बरसात इसी तरह हमारे झूठे विकास मॉडल की पोल खोलती रहेगी।